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Sunday, December 16, 2012

अरे रुक जा रे बन्दे

इन्सान भी कमाल का प्राणी है। खोजता खुशियाँ है और याद दंगो की  तिथियाँ  रख्ता है। पिछले दिनों बाबरी मज़्जिद विध्वंस को दस साल पूरा होने पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर विध्वंस की तस्वीरों  के  साथ  इस तरह के दंगो के  विरोध में विचारों की भरमार देखी। इसी तरह गोधरा काण्ड  को बीस साल पूरा
हो जाने पर दिल्ली के ही एक विश्वविद्यालय  में  एक समारोह के आयोजन में बदले की भावना से भरे कुछ भाषण भी सुने। साम्प्रदायिकता की तुछ  राजनीती से प्रेरित ऐसे दंगो को क्या इतना महत्व देना सही है की इनकी याद  में समारोह आयोजित किये जायें। कहने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है की इन्हें भुला दिया जाये
या दंगों में  मारे  गए मासूम लोगों  को न्याय न  मिले। इन्सान को अपनी गलतियों और अतीत से सबक सीख्रते
रहना चाहिए पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसे दंगों को जब दस या बीस साल बाद  अलग अलग तरह के
समारोहों और भाषणों के माध्यम से याद किया जाता है तो क्या वाकई हम कोई सबक सीख रहे होते है या फिर
दस या बीस साल  बाद  उन्ही तुछ सांप्रदायिक विचारों को नया मंच देते है जिन्होंने इंसानियत की हत्या की होती है। एक लम्बे समय के बाद दोबारा उन्ही घटनाओ को याद कर  हम नयी पीड़ी में उसी बदले की भावना को संप्रेक्षित कर देते है और  इस तरह सौ साल बाद भी इन दंगो के धाव ताजे ही रहते है।
                                                                      हमे रुक के सोचना होगा कि आखिर   हम किस ओर जा रहे है? सोचना होगा की हम कैसा भारत चाहते है? दंगो की आग में  जलते रहने वाला भारत या गलतियों से सीख उन्हें
दोहराने से बचने वाला भारत। क्या एड्स दिवस पर एड्स फैलाया जाता है? नहीं।। फैलाया जाते है एड्स  से
बचने के उपाए और सावधानियाँ। इसी तरह दंगो को याद करने की जगह उनसे उलट भाईचारे के सन्देश उस दिन क्यों नहीं फैलाये जाते? इसे कहा जायेगा सही सबक सीखना। ब्लैक फ्राइडे नाम की फिल्म के एक गीत से कुछ पंक्तियाँ याद आती है की
                                                                    ये अंधी चोट तेरी
                                                                   कभी की सूख जाती
                                                                   मगर अब पक  चली है
      

Monday, September 3, 2012

भारतीय सिनेमा के जन्म का पहला दशक 1930-40 (भाग-3)

सिनेमा के पहले दशक का अंत देवदास का जिक्र किये बिना नहीं किया जा सकता! इस दशक में शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय के नायब उपन्यास पर आधारित पी सी बरुआ के निर्देशन में  देवदास हमारे सामने आई! यह न्यू थियेटर्स के बैनर तले सन 1936 में बनी! देवदास और पार्वती पार्वती के प्रेम पर आधारित यह फिल्म स्त्री की कशमकश को दिखाती है! परन्तु फिल्म का अंत परम्पराओं के पुराने पढ़ जाने और स्त्री की मुक्त आकान्शाओं की तरफ संकेत कर जाता है! कुंदनलाल सहगल वैसे तो विख्यात गायक के रूप में काफी प्रसिद्ध हैं पर देवदास जैसी चंद फिल्मों में  काम करने से उन्हें एक असरदार अभिनेता भी मन जाता है ! इन्होने ही देवदास फिल्म में  गाने भी गाये इनकी यह फिल्म आज भी मिसाल के रूप में याद की जाती है! और उस देवदास से आज के देव डी का सफ़र इसके महत्व को दर्शाने के लिए काफी है! देवदास पहले बंगाल में बनी थी! बरुआ निर्देशित उस बंगाली देवदास में बरुआ ही देवदास रहे थे! पर तब इसकी सफलता का शेत्र बांगला भाषी शेत्र तक ही सीमित था इसलिए इसे हिंदी में बनाने का ख्याल आया! हिंदी देवदास में  बरुआ निर्देशन तक ही सीमित रहे और देवदास का किरदार सहगल ने निभाया! इस तरह सिनेमा के पहले दशक ने बहुत खूब शुरूवात की और आगे की राह साफ़ हुयी!  

Sunday, September 2, 2012

भारतीय सिनेमा के जन्म का पहला दशक 1930-40 (भाग-2)

फिल्मों का शुरुवाती दौर धार्मिक फिल्मों का दौर था! दादा साहब फाल्के फिल्मों की शुरुवात कर चुके थे और आने वाले समय में फिल्मे नए नए कीर्तिमान रचने वाली थी! फिल्मों के पहले दशक में मील का पत्थर साबित हुयी पहली बोलती फिल्म जिसके बिना आज की फिल्म इंडस्ट्री की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी! 1931 में "आलम आरा" क्रांति ले आई और फिल्मे बोलने लगी! इसके निर्देशक थे इम्पीरियल फिल्म कंपनी के मालिक अर्देशिर इरानी! इनका जन्म पुणे में हुआ! पूरा नाम था खान बहादुर अर्देशिर ईरानी! सन 1929 में  इन्होने एक बोलती अमेरिकन फिल्म देखी जिसका नाम था "मेलोडी ऑफ़ लाइफ" जो उनके लिए प्रेरणा बनी! वह अपने दो दोस्तों के साथ अमेरिका गए, तीन महीने साउंड फिल्म की ट्रेनिंग ली! 1930 में
फिल्म आलम आरा की शूटिंग शुरू की! इस फिल्म मैं उस समय के स्टार पृथ्वी राज कपूर, मास्टर जयराम विथल,  जुबैदा तथा एम् डब्लू खान ने काम किया! "दे दे खुदा के नाम पर बन्दे" पहला भारतीय सिनेमा का  गीत रहा!
इस दशक के महान किरदारों में  हिमांशु रॉय का नाम भी उल्लेखनीय है मुख्यतः "अछूत कन्या" के लिए जाना जाता है! चलिए इस दशक के इस महान व्यक्ति  के विषय में बात करते हैं! हिमांशु रॉय भारतीय सिनेमा से तब जुडे जब शुरुवाती दौर था, संघर्ष चल रहा था पर ये ऐसे पहले व्यक्ति साबित हुए जिसने भारतीय सिनेमा की विदेशों तक पहचान बनायीं! इनका जन्म बंगाल में  हुआ, घर का थियेटर होने के कारण हमेशा से इस कला से जुड़े रहे1 पिता ने वकालत पढने के लिए इंग्लॅण्ड भेजा पर वहां अलग अलग रंगमंच से भी जुड़े रहे! लंदन मई निरंजन पौल के नाटक "द  गोदेस" में  मुख्य भूमिका निभाई!2936 में अछूत कन्या रिलीज़ हुयी, यह उन शुरुवाती फिल्मो में से एक थी जिसने समाज की कमियां समाज के सामने रखी! यह कहानी थी एक पंडित लड़के और एक नीची जाती की लड़की की प्रेम की! हिमांशु रॉय की "द लाइट ऑफ़ द एशिया",  जिसमे महात्मा बुद्ध की कहानी कही गयी, विदेशों में खूब चली, 9 महीने चलकर इसने नया कीर्तिमान स्थापित किया! इसके बाद इन्होने जर्मनी की फिल्म कंपनी के सहयोग से शिराज नाम की फिल्म बनायी! इसके बाद 1929 में इंग्लॅण्ड  व जर्मनी की कंपनी की मदद से "अ थ्री ऑफ़ डायस" बनायीं! फिल्म पूरी होते होते फिल्म की नायिका  देविका रानी तथा हिमांशु रॉय पति पत्नी क बंधन में  बांध चुके थे! इतनी सफल फिल्मों से जो पैसा कमाया उससे  1934 में बॉम्बे टाकीज कि स्थापना की! अछूत कन्या का निर्माण बॉम्बे टाकीजके बैनर तले ही किया गया! इसमे बॉम्बे टाकीजके लैब सहायक अशोक कुमार को भी भूमिका अदा करने का मौका मिला! 6 वर्ष जितने कम समय में  बॉम्बे टाकीज न काफी नाम कम लिया पर इस से पहले की हिमांशु इसे नयी उचाईयों तक ले जा पाते 19 मई 1940 को सिर्फ 45 वर्ष की उम्र में  उनका निधन हो गया! क्रमश

Saturday, September 1, 2012

भारतीय सिनेमा के जन्म का पहला दशक 1930-40 (भाग-1)

अधिकतर लोगों के मन में यह सवाल उठता है की आज इतना फल फूल रहे भारतीय सिनेमा की शुरुवात कैसे हुयी या उस समय में आई फिल्मो ने भी क्या समाज पर कोई प्रभाव डाला? आज इस लेख के माध्यम से मैं हिंदी सिनेमा के पहले दशक के बारे में बात करूंगा! हिंदी सिनेमा के इस दशक पर मैं मुख्य निर्देशकों पर सिलसिलेवार बात करता हुआ आगे बढूँगा! जिस तरह हमारा देश अलग अलग दौर से गुजरा, जो भी परिवर्तन हमारे समाज ने देखे उसे अपने तरीके से सिनेमा ने व्यक्त किया! इसके बीजारोपण की तिथि थी 7 जुलाई 1826, लुमिएर ब्रदर्स नमक दो फ्रांसिसीयों की फ़िल्म का प्रीमियर वाटसन ठेयेटर में  हुआ! इसमें 12 लघु फिल्मे दिखाई गयी जिनमे "अरायिवल ऑफ़ द ट्रेन", "द  सी बाथ" मुख्य थी! इसे करीब 200 लोगो ने देखा! इन सब से प्रभावित हो मणि सेठना नाम के भारतीय ने भारत का पहला सिनेमा घर खोला! जिस पर पहली फिल्म "द लाइफ ऑफ़ द क्रिस्ट" दिखाई गयी! यह फिल्म धुंडी राज गोविन्द फाल्के उर्फ़ दादा साहेब फाल्के ने भी देखी और इसी से प्रेरित हो कर  भारतीय सिनेमा की नीव रखी! यह फिल्म जीजस क्रीस्ट की जिंदगी पर आधारित थी और इसे देख वह समझ गए की भारतीय वेदों और पुराणों में ऐसी कई कथाएं है जिन्हें फिल्मों का रूप दिया जा सकता है! इनका जन्म 30 अप्रैल 1870 में  महाराष्ट्र में नासिक के करीब त्रिय्म्ब्केश्वर में  हुआ! फिल्मे बनाने का सपना देखना उसे करने से कहीं  ज्यादा आसान था क्योंकि तब तक किसी भारतीय ने फिल्म निर्माण जैसे पेचीदे कार्य को हाथ नहीं लगाया था इसके अलावा फिल्म तकनीक से अवगत होना भी बेहद जरुरी था! इन सब को प्राप्त करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए और वापसी में एक कैमरा और प्रिंटिंग मशीन लेकर लौटे! अगली दुविधा यह थी की उस समय फिल्मों में पैसा लगाने को कोई तैयार नही था क्योंकि तब तक किसी को विश्वास नहीं था की  भारतीय भी फिल्म बना सकते हैं! इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक मटर के दाने को पौधे में विकसित होते हुए शूट किया इसका नाम था द  ग्रोथ ऑफ़ अ पी प्लांट! इसके बाद इन्हें आर्थिक सहायता देने के लिए कई हाथ आगे आये! पहली फिल्म राजा हरीशचंद्र के रूप में सामने आई! हरीशचंद् की भूमिका दाबके तथा तारावती की भूमिका सालुंके ने की क्योंकि  उस समय महिलाओं का फिल्म में काम करना आसान नहीं था! 17 मई 1913 को यह कोरोनेशन  थियेटर में  प्रदर्शित हुयी, और यह 8 सप्ताह चली! इसके बाद नासिक में इन्होने "भस्मासुर मोहिनी" बनायीं, यह फिल्म विफल रही! अगली फिल्म "सत्येवान सावित्री" बनायीं! इसके बाद यह अपनी तीनो फिल्मों को लेकर इंग्लॅण्ड चले गए! स्वदेश लौट कर "लंका दहेन" बनायीं ! अभी तक की सभी फिल्मे इनके खुद के बैनर टेल बनी थी पर इसके बाद खुच धनवान लोगो  द्वारा सांझे लाभ हानि का प्रस्ताव आने पर हिन्दुस्तान कंपनी का जन्म हुआ! इस कंपनी के बैनर तले "कृषण जन्म" बनायीं और इसके बाद कालिया मर्दन बनायीं! इनकी पहली और आखरी सवाक फिल्म "गंगावात्रण" थी! 19 फ़रवरी 1944 में  74 वर्ष कि उम्र में  नासिक के अपने घर में इन्होने आखरी सांस ली! आज भी दादा साहेब फाल्के अवार्ड फ़िल्मी शेत्र में दिए जाने वाला सबसे बड़ा अवार्ड है! क्रमश    

Thursday, August 30, 2012

जन जागरण का नया नाम था सत्येमेव जयते!

मनुष्य जाति के इतिहास में जन जागरण का अपना ही महत्व रहा है इतिहास गवाह रहा है की जब जब आडम्बर या कुरीतिय अपनी सीमायें पार कर गयी तब तब जन जागरण की लहर चली जिसने लोगों को जगाया या कुरीतियों के कु प्रभाव से उन्हें अवगत करवाया! इस पूरी प्रक्रिय में कुछ कुरीतिय मिट गयीं पर कुछ लुखे छिपे ढंग से मौजूद रहीऔर आज इक्कीसवी शताब्दी में भी इनमे से कई अपने अस्तित्व के साथ बखूबी मौजूद है! राजा राम  मोहन राय, दयानंद सरस्वती या महात्मा गाँधी यह और इनके जैसे कई पने अपने काल की कुरीतियों के खिलाफ एक मुहीम के रूप में जाने जाते है! इन सभी ने कुरीतियों के खिलाफ लड़ने का जो तरीका अपनाया वह था कुरीतियों को लोगों के सामने उठाना, उन्हें बहस का मुद्दा बनाना! इस कड़ी में  2012 के भारत में यह भूमिका एक टेलीविजन कार्यक्रम पूरा करता दिखाई दिया "सत्यमेव जयते"!
                                       यह कार्यक्रम टेलीविजन पर ऐसी भूमिका में  और ऐसे समय पर आया जब टेलीविजन से टीआरपी के अलावा किसी और चीज पर ध्यान देने की उममीद  करना भी बेमनी था! राजा राम मोहन राय ने अपनी विचारधारा और सत्य लोगों तक कुछ समाचार पत्रों द्वारा पहुँचाया, वही दयानन्द सरस्वती जी ने अपनी सोच विदेशो में भाषणों द्वारा जनता तक पहुंचाई अर्थात हर काल के समाज सुधारक ने अपने अपने समय के संचार साधनों का प्रयोग किया ऐसे में यदि इक्कीसवी शताब्दी केवल टीआरपी की होड़ में निकल जाती तो यह काफी दुखद होता! पहले प्रयास के रूप में सत्येमेव जयते हमारे सामने आया जिसमे बेहद संवेदनशील तरीके से मुद्दों को उठाया गया, और मुद्दों के प्रति संजीदगी को इस धर पर आँका जा सकता है की कार्यक्रम में  अलग अलग मुद्दे उठते ही उन पर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली! कुछ आलोचकों ने इसकी  टीआरपी  को  लेकर इसकी सफलता पर ऊँगली उठाने की कोशिश की पर ऐसे सामाजिक मुद्दों पर आधारित किसी  भी कार्यक्रम के सफलता का पैमाना उसका जनता पर प्रभाव होना चाहिए इस हिसाब से इसने सफलता की अलग ही गाथा लिखी! अपने 13 एपिसोड के बाद यह कार्यक्रम रूपी मुहीम समाप्त हुयी और 13 एपिसोड में  हर समस्या पर बात कर पाना काफी मुश्किल है इसलिए ऐसे कार्यक्रम रूपी और कई  मुहिमो की जरुरत  है!    

Wednesday, August 29, 2012

अब लोकतंत्र में बदलाव आवश्यक है!

लोकतंत्र अर्थात जनता का शासन, पर पिछले कुछ समय से हिंदुस्तान में इसके मायने बदल गए है! सरकार  का लिखित आश्वासन के बाद मुकर जाना, शान्तिपूर्ण तरीके से धरना प्रदर्शन करते लोगो पर लाठी चार्ज, संचार का सबसे सरल साधन बन चुके एस.एम.एस पर रोक, जब तब सोशल मीडिया पर सरकार के प्रति रोष जताने वालों पर कड़ी कार्यवाही, यह सब उदाहरण दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नहीं लगते! पर दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यह सब हमने यह सब पिछले महीने होते देखा!
                                                     विपक्ष के मुख्य नेता अडवाणी जी द्वारा यह भविष्यवाणी की 2014 में देश का प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी तथा गैर भाजपायी होगा अपने आप में उपरोक्त सभी घटनाओं का एक निचोड़ पेश करती है जो संभवत: घटित हो भी सकता है! इस सम्भावना को टीम अन्ना का राजनीती में उतरना और समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन काफी बल देता है! यह बात जो एक विपक्ष का नेता आसानी से खुल कर सबके सामने बोल गया वह अभी तक सत्ता पक्ष समझने में नाकामयाब रही और उम्मीद है की 2014 में अपनी  नाकामयाबी के बाद यह सब बातें कांग्रेस विभिन्न आयग बना कर पता करेगी! और जो विपक्ष जीत से फुले नहीं समां रहा उसको यह समझने में परेशानी हो रही है की यह जीत उसे विकल्प के आभाव में  मिली है न की अपने किसी शानदार प्रदर्शन के कारण! किसी भी सत्ता पक्ष के लिए यह समझना जरुरी है की उसके हर छोटे बड़े  कृत्य से कोई न कोई  सन्देश जनता तक जरुर पहुँचता है जिसके आधार पर मतदान का फैसला मतदाता करता है! आज भारतीय मतदाता के समक्ष स्तिथि लोकतान्त्रिक होते हुए भी लोकतान्त्रिक नहीं है! मतदाता के सामने अपने मत योग्य उमीदवार उपलब्ध नहीं है, जनता को हर बार ज्यादा बयिमानो में  से कम बयिमानो को चुनने के लिए मजबूर होना पड़ता है! यही कारण है की हर बार के चुनाव के मतदान का प्रतिशत 50 या 60 प्रतिशत से ज्यादा नहीं पहुँच पाता! कितना हास्येपद लगता है की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश कहलाने वाले भारत में आधी आबादी मतदान ही नहीं करती या कहें की आधी आबादी का विश्वास ही चुनाव प्रणाली से उठ चुका है और यह मुख्य पार्टियों द्वारा अपराधिक छवी वाले लोगो को समर्थन देने का नतीजा है! कलमाड़ी, ए राजा  या कोयला घोटाला यह बताने के लिए काफी है की हर कानून का तोड़ मौजूद है और ऐसा प्रतीत भी होने लगा है की लाल बत्ती वाले अपने कानून खुद बनाते है! लोग सड़कों पर उतर रहे है धरना प्रदर्शन कर रहे है! यह बताने का लिए काफी है की मौजोदा व्यवस्था से लोग नाखुश है! यह आज बहुत जरुरी हो गया है की भारतीय लोकतंत्र में कुछ सुधार  किये जायें ताकि लोकतंत्र सिर्फ नाम का लोकतंत्र न रह जाये, ताकि उन पर नकेल कसी जा सके जो कानून को तोड़ मरोड़  कर अपने सुविधा अनुसार इसका प्रयोग करते है, ताकि एक सरकारी नौकर नौकरी करे आराम की नौकरी नहीं , ताकि भरष्टाचार के वर्ल्ड रिकॉर्ड में भारत का नाम आना बंद हो और आम आदमी अपने मत के लिए  एक सही उमीदवार पा सके और लोकतंत्र सच्चा लोकतंत्र बन सके!      

Sunday, August 5, 2012

निराशावादी आशावाद से दूर रहे! (अन्ना आंदोलन)

हिन्दुस्तान में जब कोई किसी मुद्दे के प्रति खुद को बेबस महसूस करता है तो परिस्थितियों से लड़ने की जगह हम खुद को कोई ना कोई तसल्ली दे कर मुद्दे से बिल्कुल अलग कर लेते है! ऐसा ही कुछ मुझे पिछले दिनो टीम अन्ना के आंदोलन में लोगो के रवैये तथा मीडिया चैनलों के साथ होता दिखाई दिया! टीम अन्ना के सदस्यों ने जब पिछले दिनो अनशन की शुरूवात की तो मीडिया चैनलों में इस आंदोलन को फेल करार देने की होड़ सी लग गयी! जब इस मुद्दे पर लोगो से मैने बातचीत की तो पाया की लोगो का नज़रीया भी रातों रात मीडिया चैनलों की ख़ास पेशकशों के अनुरूप बदल गया है! लोग अब लड़ने से कतरा रहे थे और एक बात लगभग हर किसी ने दोहराई की लोकपाल क़ानून से तो भ्रष्टाचार ख़तम नही होगा, इसके लिए तो लोगो को ही ईमानदार बनना पड़ेगा! यह बात एक बार को आप को धोखे में डाल सकती है और इस तरह की तसल्ली दे कर लोग आगे की लड़ाई लड़ने से माना भी करने लगे थे पर ऐसी तस्सल्ली एक तरह के निराशावादी आशावाद के समान है जिसमे यह आशा तो है की लोग इमानदर बनेगे पर जब इसका विश्लेषण वास्तविक धरातल पर करेंगे तो नतीजे निराशावादी पाएँगे! इस कथन को यदि हम गहराई से देखे तो पाएँगे की यह सारा इल्ज़ाम लोगो पर डाल देता है की लग भ्रष्ट है और जब तक वह नही सुधरेंगे लोकपाल का भी कोई लाभ नही होगा! एक उदाहरण के साथ इस कथन को समझने में और आसानी होगी, यह कथन कहता है की कोई अगर राशन कार्ड बनवाने जाता है तो वह सरकारी बाबू को कहेगा की में राशन कार्ड तभी लूँगा जब आप मुझसे घूस लेंगे!!! क्या यह वास्तविकता लगती है?नही!!!! कोई भी खुशी से घूस नही देता और ख़ास तोर पर भारतीय तो एक अधिक रुपया ना खर्चे! आम आदमी को मजबूर किया जाता है भ्रष्ट बनने पर क्यूंकी ईमानदारी से काम करवाने के सारे रास्ते उसके लिए बंद कर दिए जाते है! भ्रष्ट बनने पर मजबूर करता है सरकारी अफ़सर जो यह सोच कर अपनी नौकरी करता है की ज़मीन और आसमान एक हो सकते है पर मेरी नौकरी पर कोई आँच नही आ सकती! इन सब तर्को के बाद भी काई लोगो का कहना था की आम आदमी इनके आगे झुक क्यूँ जाता है? यह भी एक उलझा देने वाली तसल्ली है जिसकी हक़ीकत एक और उदाहरण से सॉफ हो सकती है! किसी परिवार में एक बच्चा बीमार हो जाता है पर सरकारी डॉक्टर इलाज से पहले घूस की माँग करता है तो वह व्यक्ति उस समये ईमानदारी की खोखली बाते करे या अपने बच्चे का इलाज करवाए! यह एक नही ऐसे ही हज़ारो उदाहरण उपलब्ध है यह बताने के लिए की वास्तव में एक आम आदमी इमानदर ही होता है उसे भ्रष्ट सरकारी अफ़सर बनाते है या मजबूर करते है1 और ऐसा इसलिए है की लोकपाल जैसे मजबूत क़ानूनो का आभाव इस देश में आज़ादी से है! कुछ दिन बाद अन्ना आंदोलन में भीड़ बाद गयी और मीडिया कुछ शांत हुई पर जब सरकार का रुख़ नकारात्मक रहा तो अन्ना को राजनीति में आने की घोषणा करनी पड़ी पर मीडिया अचानक "16 महीनो में आंदोलन की मौत" जैसे कार्यक्रम दिखाने लगा! क्या अन्ना का राजनीति में आना ग़लत है ? क्या मीडिया का मानना है की राजनीति मात्र अपराधिक छवि वालो के लिए है? इस पूरे आंदोलन में मीडिया की छवि विवादस्पद रही, जहाँ यह चैनल अपने पोल द्वारा यह घोषणा कर रहे थे की 96% लोग अन्ना के राजनीति में आने से सहमत है, वही आंदोलन की मौतजैसी ख़बरे दिखा रहे थे! क्या यह सरकारी दबाव में किया गया? साधारण तोर पर मीडिया से यह उमीद की जाती है की वह जन हित में बात करे पर इस दौरान मीडिया खुद संदःपूर्ण स्तिथि में था! समये है की लोग अपनी ज़िम्मएयदारी को समझे और मीडिया के अनुसार अपनी सोच परिवर्तित ना करे!

Thursday, July 5, 2012

इन्हें धंधा न बनाएँ!

विश्वविद्यालयों में दाखिले की दौड़ जोरों पर है, साथ ही प्रसिद्ध कोर्सों के लिए विद्यार्थी कड़ी प्रतियोगिता का सामना कर रहे है, ऐसे में मेरा ध्यान दो महत्वपूर्ण कोर्सों की तरफ गया जो की केवल कोर्स मात्र नहीं है बल्कि इस से कई ज्यादा ऊपर हैं!
                               इन दो कोर्सों के विषये में आगे बात करता हूँ, उस से पहले एक आम धारणा की और ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा की आज लाखों की संख्या में छात्र  दाखिले की दौड़ में भाग लेते हैं और जाहिर सी बात है की दौड़ में जीतने का दबाव काफी भारी होता है, ठीक वैसे ही दाखिले की दौड़ में भी दाखिला पाने का दबाव काफी ज्यादा होता है  और जो दाखिला पा जाते हैं, वह भविष्य में अपनी इस दौड़ में  बहाए पसीने का मोल भारी पैकेज वाली नौकरियों के साथ बदलना चाहते हैं अर्थात कोई भी अपने चुने गए शेत्र में कामयाबी का मापदंड भारी पैकेज वाली नौकरियों या सिर्फ भारी लाभ को मानता हैं! आप मे से कई यह भी कहेंगे की इसमे गलत क्या है? मेहनत के बाद लाभ पर हमारा अधिकार है!
                                                पर जिन दो प्रसिद्ध शेत्रों  या कोर्सों की बात मै करने वाला हूँ उन पर यह भारी मुनाफा कमाने की धारणा लागू नहीं होनी चाहिए और इसे बदलने की जरूरत है! जरा सोचिये आपको तब किसकी सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है जब आपका शरीर काम नहीं करता मतलब की जब आप बीमार होते हैं? जवाब होगा डॉक्टर की !! और जरा सोचिये जब आप के साथ अन्याय होता है तो न्याय तक पहुंचाने वाला कौन होता है? वकील!! मै बात करूँगा इन दो महत्वपूर्ण शेत्रों  की जिनमे हजारों या लाखों की संख्या में विद्यार्थी दौड़ लगाते हैं  और कुछ चुनिन्दा खुश किस्मत और मेहनती सफलता पाते हैं! मेरा केवल इन दो शेत्रों को चुनने का कारण इनका मानव हित से सीधे जुड़ा होना है! कहा भी गया है की पहला सुख निरोगी काया तथा लॉस  जैसे महान विचारक का कहना था की बिना न्याय के कोई भी इन्सान बेहतर जीवन नहीं जी सकता! पर इन पेशों में कर्तव्य उस समय काफी पीछे छूट जाता हैं जब मेहनत और मुनाफे की अदला बदली का समय आता है!
                   क्या किसी मरीज का इलाज हो सकता है जब डॉक्टर को उसका मरीज मुनाफा कमाने का जरीया लगे, या किसी पीड़ित को न्याय मिल सकता है जब न्याय की गुहार लगा रहा व्यक्ति लाभ का स्त्रोत नजर आये! वास्तविकता यही है की हम ऐसी व्यवस्था में ही जी रहे हैं  जहाँ किसी की जरुरत किसी की रोटी कमाने का साधन है और ऐसी  व्यवस्था नैतिकता की बली चढ़ाती है! एक उदहारण से अपनी बात साफ़ करना चाहूँगा, मुझसे किसी ने पुछा की लादेन जब एबटाबाद में ही पकड़ा गया पर पाकिस्तान ने उसे पहले क्यूँ नहीं पकड़ा? मेरा जवाब था की पकिस्तान को लादेन को पकड़ने के लिए अमेरिका भारी आर्थिक मदद देता था और अगर  पाकिस्तान लादेन को पकड़ लेता तो यह भारी भरकम आर्थिक मदद ख़त्म हो जाती! मैं मुद्दे को भटका नहीं रहा हूँ सिर्फ दिखाना चाह रहा हूँ की कैसे लालच नैतिकता पर भारी पड़ जाता है! यह सभी बातें मेरी काल्पनिक थ्योरी नहीं है, सच है की कई लाख डॉक्टरो पर उपभोक्ता अदालतों में मुद्दे लंबित है, क्यूँ कोई डॉक्टर  महंगी दवाओं की जगह जेनरिक दवाओं को महत्व नहीं देता? आखिर क्यूँ अदालतों में क्यों केस कई पीड़ियों तक  चलते रहते हैं? क्या यह हमारी भायावह स्तिथि के परिणाम है? हमारी मजबूत होती पूंजीवादी सोच के साथ डॉक्टरों के लिए मरीज भी कस्टमर बन गए हैं, मैं पूंजीवाद का विरोधी कतई नहीं हूँ  सिर्फ इस चलन के प्रति चिंता व्यक्त  कर रहा हूँ! मेरा सवाल है की क्या कोई विकल्प है स्तिथियों को सुधारने का? क्या हमे कॉमन  एंट्रंस  टेस्ट में सुधार से पहले मूल भावना में सुधार की जरूरत नहीं है? सोचिये और जवाब खोजिये!    

Monday, June 11, 2012

यह बेहतर कल का बहिष्कार है

सत्यमेव जयते द्वारा उठाये गए पिछले दो मुद्दों पर आई.ऍम .ए (Indian medical association) और खाप पंचायतों ने काफी हो हल्ला मचा रखा है, यदि इस हो हल्ले को गौर से देखें तो पाएंगे की यहाँ सत्यमेव जयते का नहीं एक बेहतर कल का बहिष्कार करने की बात कही जा रही है! सामाजिक बुराइयों को को समाज से आँखे मिलाने पर मजबूर कर रहा यह कार्यक्रम उन लोगों की आँख की किरकिरी बनता जा रहा है जो उन सामजिक बुराइयों का खुद एक हिस्सा हैं, और यह स्वाभाविक भी है!
                                                             इस सारे घटना क्रम पर एक कहानी याद आती है - बहुत समय पहले एक अत्याचारी राजा था, जो की अत्याचार करने के नए नए मौके खोजता रहता था! हर बार की तरह उसने अपनी प्रजा को एक  अजीबो गरीब फरमान सुनाया, उसने एक दरजी को ऐसी पौशाक बनाने को कहा जो पूरे राज्य में किसी के पास न हो! दरजी ने भी अपनी जान की खातिर एक चाल चली और राजा को हवा की  पौषक बना कर दी, जो दिखती ही नहीं थी! रजा खुश हुआ और पौषक पहन कर पूरे राज्य मे नंगा ही घूमने निकल पड़ा! रजा के अत्याचारों के कारण प्रजा की भी सच्चाई बताने की हिम्मत नहीं हुयी पर एक भोला बच्चा राजा  को देख अचानक बोल पड़ा की राजा तो नंगा है! कहानी का अंत तो मुझे याद नहीं पर वोह बच्चा फिर किसी को राज्य मे नहीं दिखा!  सत्यमेव जयते भी सरकार का नंगा पन उसे दिखने की कोशिश कर रहा है और यही कारण है की  अपराधों में शामिल इसका विरोध कर रहे है! आई.ऍम .ए की यह मांग की डॉक्टर समाज को बदनाम करने के लिए आमिर खान माफ़ी मांगे अजीब लगता है, आखिर क्यों न आई.ऍम .ए देश से माफ़ी मांगे की  अभी भी देश के हर राज्य मे जेनरिक दावा खाने नहीं है और लोग महंगी दवा लेने पर मजबूर है! क्या  आई.ऍम .ए इस बात को नज़र अंदाज कर सकता है की आज भी 33 हजार मुकदमे उपभोक्ता अदालतों मे लंबित है! इस तरह के जागरूकता अभियान का स्वागत करने की जगह इसका बहिष्कार करना खुद आई.ऍम .ए को संदिग्ध की सूची मे खड़ा करता है और कार्यक्रंम के अंत मई आमिर खान का कहना था की  आज भी कई डॉक्टर अपने कौशल का बेहतरीन उपयोग कर रहे है और युवा डोक्टरों को इनसे प्रेरणा लेनी चाहिए  इसके बावजूद ऐसी बातें इस संस्था की साख को गिरती है क्योंकि कई बड़े डॉक्टर आमिर के कार्यक्रम को सही ठहरा चुके है! इसलिए इस पहल को जागरूकता के नजरिये से बढावा देने की जगह एक डॉक्टर समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था द्वारा इसका बहिष्कार करने की बात करना मुझे बेहतर कल का बहिष्कार लगता है!
                            दूसरा मुद्दा है हरियाणा की खाप पंचायतों द्वारा कार्यक्रम के बहिष्कार का! अजीब बात यह है की बहिष्कार की बात ऐसी पंचायत के  तानाशाह कर रहे है जो न तो जनता द्वारा चुने गए है और न ही जिनका कोई कानूनी आधार है  और तो और जिनका भारतीय संविधान और न्याय व्यवस्था पर भी कोई विशवास नहीं है! इस तरह की प्रतिक्रिया  समाज से आना हमारी छ: दशक से विकसित हो रही सोच का दायरा काफी छोटा  कर देते है! अब सवाल खड़ा होता है की क्या हम सामाजिक बुराइयों को पहचानने के काबिल भी है या नहीं? आशा है समाज थोपी जा रही प्रथाओं और परम्पराओं के खिलाफ आवाज जरूर उठाएगा!

Friday, May 11, 2012

जन जागरण का नया नाम सत्यमेव जयते, आलोचकों को मेरा जवाब!

सत्यमेव जयते की चौतरफ़ा तारीफों के बाद इसकी तारीफ में कुछ भी कहने को नहीं बचा है, किरण बेदी से लेकर फिल्म और धारावाहिक समीक्षकों तक ने इसे सराहनीय कदम के रूप में  परीभाषित किया है! पर कुछ आलोचक अभी भी है जो ना तो खुद कोई शुरूवात करने की हम्मत रखते है और दूसरों के द्वारा उठाये
जा रहे क़दमों को भी बिना तार्किक कारणों के धित्कार रहे है! ऐसे ही एक लेखक है केशव जी (blogger on navbharat times reader's blog) यह अपने लेख में फिल्मों के सामाजिक प्रभाव पर ही प्रशन चिन्ह लगा रहे है! यह फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन भर का साधन मानते है और यह फिल्मों से इनकी दूरी को बयां करता है, हमेशा से फिल्मों और धारावाहिकों को समाज का आईना माना गया है और सत्यमेव जयते समाज को उसका
चेहरा दिखाने की एक मजबूत पहल है  माना जा सकता है! सत्यमेव जयते समाज की कुरीतियों के सागर में मारा गया सुधार रूपी कंकर है जिससे बदलाव की लहर जरुर बनेगी, या कह सकते है की बननी शुरू हो चुकी
है और इलाहबाद में  स्टिंग द्वारा कन्या भ्रूण हत्या में लिप्त एक डॉक्टर का खुलासा, भोपाल में कन्या भ्रूण ह्त्या के सम्बन्ध में नया क़ानून और राजस्थान के मुख्यमंत्री द्वारा हाई कोर्ट जज से फास्ट ट्रैक कोर्ट 
बनाने की मांग अपने आप में  बदलाव की शुरुवात है! ऐसे में फिल्मों और धारावाहिकों को सिर्फ मनोरंजन भर  का साधन कहना काफी छोटी सोच को दर्शाता है! केशव जी अपने लेख की शुरुवात में  सवाल पूछते है की क्या
इस से सामाजिक बुराइयां ख़त्म हो जायेंगी? तो जवाब है हां! कभी रजा राम मोहन राय या दयानंद सरस्वती
द्वारा भी सामजिक बुराइयों के खिलाफ जन जागरण की मुहिम चलायी गयी थी और आज अगर सती प्रथा या विधवा विवाह जैसी कुरीतियों में बदलाव हो सका तो यह उसी का नतीजा था! बदलाव एक आदमी द्वारा
हो सकता है जरुरी है इसके लिए दिल से प्रयास करना! केशव जी अपने लेख में आगे कहते है की आमिर खान
क्योंकि एक सम्रध वर्ग से सम्बंधित है इसलिए दहेज़ जैसी घटनाओं पर उन्हे आश्चर्य होना स्वाभाविक है! यह बात
लिखना इनकी अज्ञानता का सबूत खुद दे देती है क्योंकि कई सर्वे और सत्यमेव जयते में भी एक विशेषज्ञ
यह बात बता चुके है की दहेज़ और कन्या भ्रूण हत्या जैसी करतूत सम्रध परिवारों में जयादा देखने को
 मिलती है तो गरीब और अमीर का यहाँ सवाल ही नहीं उठता!यहाँ जरूरत है जन जागरण की और यही
काम कर रहा है सत्यमेव जयते! इसके बाद केशव जी आमिर खान के इस प्रयास पर ही सवाल उठाते है की 
वह ऐसा सुधारवादी कदम कैसे उठा सकते है क्योंकि वह  खुद तलाकशुदा है! यहाँ तलाक को बहुत ही गलत 
रूप से परिभाषित किया गया है इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए की तलाक भारतीय क़ानून द्वारा उत्पीरण 
से बचने का एक साधन है ना की शोषण का हथीयार! अगर रीना दत्त के साथ कुछ भी गलत हुआ होता तो 
उनके पास कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का विकल्प मौजूद था पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया इसका मतलब
साफ़ था की उनकी सहमति से ही सब हुआ हो और किसी भी बात पर राय देने से पहले दोनों पक्षों को सुना 
जाना बहुत जरुरी होता है पर आमिर खान के तलाक के मुद्दे पर हम एक पक्ष को भी ठीक से नहीं जानते तो
ऐसी राय देना हास्यपद है! इनका मत है की इस तरह की पहल से एक प्रतीशत भी फर्क नहीं पड़ने वाला!
यदि इनकी जैसी सोच रखी  जाए सुच में कुछ नहीं बदल सकता, बदलाव के लिए आशावादी होना जरुरी है!
अगर ऐसी ही सोच पोलियो के खिलाफ भारत सरकार की होती तो आज भी हम पोलियो मुक्त देश की सूचि में  शामिल नहीं होते! अफ़सोस यही है की हम यह मान कर चलते है की कुछ नहीं बदल सकता और अकेले मेरे
प्रयास से तो बिलकुल नहीं पर ऐसा कुछ नहीं है बदलाव के लिए एक आदमी भी काफी होता है बस जरुरत है
इच्छाशक्ति की! मुझे केशव जी से कोई गिला नहीं है बस मतभेद है उनकी विचारधारा से जो कहती है की
मै समाज में  लगी आग नहीं भुझा सकता पर हर उस आदमी पर ऊँगली उठाऊंगा जो भुजाने की कोशिश
करेगा! कन्या भ्रूण हत्या जैसी घटनाएं ख़त्म होंगी अगर हम चाहेंगे तो! इस नयी जनजागरण की पहेल को मेरा सलाम!

Thursday, April 19, 2012

नव सिंडिकेट खेमे का उदय और कांग्रेस के पतन की शुरुवात!

दिल्ली नगर निगम चुनावो मे साल की चौथी हार के साथ कांग्रेस ने हार का नया ही रिकॉर्ड बनाया है! उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा और अब दिल्ली से आये इस जनादेश ने साफ़ कर दिया है की निकट भविष्य मे आने वाले चुनाव कांग्रेस के अनुमानों के एकदम उलट भी हो सकते है! वैसे यह नगर निगम चुनाव थे जहाँ गल्ली मौहल्ले के मुद्दे ज्यादा महत्व रखते है पर अपने मत का प्रयोग करते समय मतदाता सरकार के अन्य कृत्यों का भी ध्यान रखते है! किसी राष्ट्रीय पार्टी को यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए की ई.वी.एम् पर उसकी पार्टी का बटन दबाने से पहले मतदाता पूरी तस्वीर को (जो पार्टी के निर्णयों से बनती है) देखता है! निर्णय आने के बाद से लगभग हर मीडिया चैनल ने कांग्रेस की हार के पीछे के सभी कारणों की अच्छे से पड़ताल बखूबी कर ली है पर एक वजह कही न कही छुपी रह गयी! इंदिरा गाँधी के प्रधानमंत्री रहते एक महत्वपूर्ण घटना घटी थी और वह थी सिंडिकेट नेताओं का उदय! वह नेता जो खुद को जनता से ऊपर समझने लगे थे उन्हें इस शब्द से नवाजा गया था! उस समय कांग्रेस की खुश किस्मती थी की इंदिरा  गाँधी जैसा शक्तिशाली नेतृत्व कांग्रेस के पास था जिसने, कांग्रेस को दो भागों मे बाँट के ही सही, पर पतन से बचा लिया था! और आज फिर ऐसा ही खेमा कांग्रेस मे दिखाई दे रहा है जो की घमंड के नशे मे चूर है! इंदिरा गाँधी  के समय मे इन सिंडिकेट नेताओं की गिनती शक्तिशाली नेताओं मे होती थी पर फिर भी जीत इंदिरा गाँधी की हुयी थी और कुछ ऐसा ही हाल हाल फिलहाल  के चुनावो मे कांग्रेस के साथ फिर होता दिखाई दिया! लगभग अन्ना आन्दोलन के समय से ही एक नव सिंडिकेट खेमे का उदय होता दिख रहा था और इस साल मे कांग्रेस की हुयी पराजयों ने इसकी मौजूदगी साफ़ तरह से दर्ज करा दी है! इस नए खेमे के अलावा अफ़सोस इस बात का है की फिलहाल कोई मजबूत नेतृत्व कांग्रेस के पास दिखाई नहीं देता! मनमोहन सिंह को भी देश के सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री से सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के पद पर बहुत पहले ही  नवाजा जा चुका है! और राहुल व प्रियंका गाँधी ने चाहे जितने सपने जनता को दिखाने की कोशिश कर ली हो पर वह इस बात से अन्भिग्ये दिखाई दिए की बिना गीरेबान मे झांके उपदेश देने से किसी का लाभ नहीं होता! जैसा की मैं पहले दोहरा चुका हूँ की किसी भी हार के पीछे पार्टी के सभी कृत्ये अपनी भूमिका निभाते है या यह भी कह  सकते है की किसी पार्टी की हर करनी जनता को एक संदेश देती है और ऐसे संदेशों के आधार पर ही पार्टी की जीत और हार तय होती है, मेरी बातों का एक ही अभिप्राय है की कांग्रेस की हार की वजह खुद कांग्रेस ही रही है और यह तथ्य भी है कि चुनावों से पहले कांग्रेस से सम्बंधित विवाद ही उसको ले डूबे और ऐसे मे भाजपा के अलावा कोई और विकल्प जनता के पास नहीं था अर्थात इन सभी हारों के पीछे भाजपा की किसी सुन्हेरी व्यवस्था ने नही बल्कि कांग्रेस के गलत कृत्यों के संदेश वजह रहे! कांग्रेस की सबसे बड़ी उपलब्धि शिक्षा का कानून रही पर वास्तविक धरातल पर इसका होना या न होना एक सामान है और स्कूलों की मनमानियां पहले ही लोगो के गले की हड्डी बनी हुयी है! खाद्यये सुरक्षा क़ानून लागू करने से पहले इसे व्यवस्था मे दीमक की तरह लग चुके भरष्टाचार के विषय मे सोचना होगा और लोकपाल की जो हालत बनायीं गयी वह सरकार के भरष्टाचार के प्रति मंसूबो को साफ़ करती है और जनता लोकपाल के वर्तमान सरकार के रहते लागू होने के बारे मे अब सोचती भी नहीं है! अन्ना और रामदेव आंदोलनों के साथ जो हुआ उसने जनता तक यही संदेश पहुँचाया की इस सरकार की कहनी और करनी मे काफी फर्क है! दिनेश त्रिवेदी को केन्द्रमंत्री के पद से हटा कर सरकार पहले ही गठबंधन का रोना रो चुकी है इसके अलावा और किस उदाहरण की जरुरत है सरकार की मजबूरी दिखाने के लिए!
                                                                                         इस वक़्त कांग्रेस को समझने की जरूरत है की सत्ता मे रहने का यह मतलब नहीं होता की जैसे तैसे सत्ता मे ही रहा जाये बल्कि जनता के प्रतिनिधि के रूप मे जनता तक यह संदेश भी पहुँचाना होता है की उसके प्रतिनिधि उसकी उम्मीदों पर खरा उतर रहे है, और जब जब इस बात का ख्याल नहीं रखा जायेगा तब तब कांग्रेस को ऐसे जनादेशो के लिए तैयार रहना होगा! 

Sunday, February 12, 2012

उत्तर प्रदेश का भगवान् ही मालिक!


उत्तर प्रदेश के चुनाव जोरों पर है और इसमें भी कोई शक नहीं की इसके नतीजे कई महानुभावों को जोरों के झटके देंगे खैर इन सब से उन्हें ही निपटने दीजिये, मै इन चुनावो के प्रचार के दौरान हुई कुछ घटनाओ से हैरान तो नहीं पर परेशान जरूर हूँ! इक्कीसवी शताब्दी है, 2012 चल रहा है, युवा वोटरों की संख्या बड़ी है और तो और हर पार्टी युवा चेहरों के साथ मैदान मे है, मुझे लगा था की अब विकास की बात होगी, नेता जनता को समझदार समझने लगेंगे और उसी भावना के साथ बयान बाजी या चुनावी वादे करेंगे! मै मानता हूँ की हिन्दुस्तानी लोकतंत्र से बहुत  ज्यादा उम्मीदे लगा रहा हूँ, पर गलती से ऐसी उम्मीदें लगा बैठा था पर हुआ ऐसा कुछ भी नहीं! ना तो राजनीति बदली और न ही नेता लोगो की सोच! 
                                              नेताओं ने ऐसे भाषण दिए जो उनके मूंह से ठीक नहीं लगते, माया जी कहती है की चालीस सालों मे कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश का बेड़ा गर्क कर दिया, मुझे तो अभी तक लगा था की उत्तर प्रदेश मे बी एस पी की सरकार है पता नही माया जी ने क्या हिसाब लगाया की उन्हें इस बात के लिए कांग्रेस जिम्मेदार लगती है, चलिए इनकी बात मान भी लेते है तो इन्होने 22 सालों मे उत्तर प्रदेश के निवासियों तक बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएँ क्यों नहीं पहुंचाई! खैर जाने दीजिये इन्होने हाथियों की संख्या मे वृद्धि तो की जो हमारे पर्यावरण को महत्वपूर्ण दें है! माया जी तो यह भी मानती है की पिछली बार के चुनावों  मै इन्होने कुछ अपराधिक छवि वाले लोगो को टिकेट दे दिया था पर इस बार एक दो लोग कम कर दिए है, अब अगर सभी बेईमान लोगों को निकालने लगती तो वह खुद कैसे पार्टी चला पाती, किसी ने मुझसे पूछ लिया की ऐसी गलतियों का एहसास अक्सर चुनावों से पहले ही क्यों होता है, तो मैंने समझाया की भैया इतनी बारीकियां देखोगे तो देश कैसे चलाओगे, देर आये दुरुस्त आये! चलिए छोड़िये माया जी को नाराज हो जायेंगी और कहीं मेरे ब्लॉग पर बैन लगा दिया तो? 
                                                    हमारे युवा नेता राहुल जी कहते है की दूसरी पार्टियाँ सिर्फ वोट बैंक की परवाह करते है, यह उसी पार्टी के नेता है जो मुस्लिम वोट को ध्यान मे रख कर जयपुर साहित्य उत्सव में एक व्यक्ति को उपस्थित होने नहीं देते! जाने दीजिये नए है गलती से मूंह से निकल जाता है! इनकी तारीफ़ भी करनी चाहिए! आप पूछेंगे क्यों?  12 फरवरी 2012 दिनाक की अखबार मे इनका एक बयान पड़ा- कहते है की मै कोई खोखले वादे नहीं करूंगा उत्तर प्रदेश की किस्मत वहां के लोग ही बदल सकते है, अब अगर कोई बाद मे कहेगा की आप विकास करने मे नाकामयाब रहे तो यह साहब याद दिला देंगे की मैंने तो पहले ही कहा था की आप ही अपनी किस्मत बदल सकते है, आपने नहीं बदली होगी मेरी क्या गलती है!
                                                   अब बीजेपी की भी बात कर लेते है, यह पार्टी सबसे आत्मविश्वासी लगी, यह आपस मे ही प्रधानमन्त्री प्रधानमंत्री खेलते रहे, मतलब विशवास देखिये पहले ही जानते थे की जीतेंगे! भगवान राम जो इनके साथ है! वहीं उमा जी अभी अभी कह बैठी की कांग्रेस एक बटी हुई पार्टी है, मुझे किसी ने कहा इन्हें याद दिलाओ की राजनाथ के बेटे को लेकर मतभेद और कुशवाह जी (जिन्हें खुद अडवानी जी ने रथ ले कर ढूँढा था) के विषय मे मतभेद इनकी पार्टी मे थे, मैंने समझया अभी अभी जुडी है बीजेपी के साथ पता नहीं होगा, अब बाल की खाल निकालने का क्या फायदा?
                                             मुझे सबसे ज्यादा दुःख इन पार्टियों की सोच को ले कर हुआ! अभी भी लोगों को लालच ही दे रहे है ताकि इन्हें वोट मिल जाए पर जरा सा होमवर्क कर लेना चाहिए था! झूट भी होमवर्क मांगता है, हर किसी ने फ्री लैपटॉप और दस दस लाख जोब्स देने के वादे तो कर दिए, जरा बता भी देते की लैपटॉप देने के लिए कौन सी कंपनी के साथ करार किया है या दस दस लाख जोब्स देने वाली मुर्गी इन्हें कहाँ से मिल गयी? ओबामा जी को भी बता देते बिचारे बहुत परेशान है! मुझे अफ़सोस इसी बात का था की आज की पीड़ी को भी यह पुरानो जितना बेवकूफ मानते है, ठीक है आप शराब दे कर वोट ले सकते है पर लैपटॉप लैपटॉप है। जरा होमवर्क कर लेना चहिए था! चलो छोड़िये, विधानसभा चुनाव ही तो है, 2014 के चुनावो मे होमवर्क कर लेंगे, वैसे भी विधानसभा मे पोर्न ही तो देखना होता है!!! देश को तो कोई नुक्सान नहीं होगा!

मुद्दे की बात: जनता हूँ आपका अच्छा मनोरंजन हुआ होगा, पर अब मुद्दे की बात करूंगा, की जागिये अब 9 % आरक्षण के लालच मे मत आईये, लैपटॉप कोई बड़ी चीज नहीं सही "आदमी" को जीताइये, आदमी इसलिए कह रहा हूँ की महिला प्रत्याशियों को टिकेट ही सूंघ सूंघ के दिया गया है! और परिवर्तन की हवा चल भी पड़ी है मणिपुर मे 82 % वोटिंग और उत्तरप्रदेश मे आजादी के बाद हुई सबसे ज्यादा वोटिंग इसी का सबूत है! जाग जाइए वरना उत्तर प्रदेश का भगवान् ही मालिक है!

Saturday, February 4, 2012

सेंसरशिप की स्वतंत्रता (freedom to sensor)

जयपुर साहित्य उत्सव के समाप्त होते ही मेरे मन से हिन्दुस्तान मे  पाई जाने वाली धर्मनिरपेक्षता, समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी कई धारणाये ख़त्म हो गयीं, और यह विश्वास हो गया की मै एक ऐसे लोकतंत्र मे हूँ जहाँ आप को सब कह सकने की स्वतंत्रता है सिवाए उसके जो आप कहना चाहते हैं! मै बात कर रहा हूँ जयपुर साहित्य उत्सव मे सलमान रुश्दी और उनकी किताब पर लगाये गए प्रतिबन्ध की! प्रतिबन्ध का कारण यह था की उनकी किताब से मुस्लिमो की भावनाओ को ठेस पहुँचती है, मै तह मानता हूँ की हिन्दुस्तान जैसे विविध धर्मो वाले देश मे हर धर्म की भावनाओ का ख्याल रखना जरुरी है, और यह एक विवादित  मुद्दा हो सकता था! पर मै एक सवाल पूछना चाहूँगा की आज से करीब 60 साल पहले भी अर्थात आजादी से पहले भी धर्म के नाम पर स्तिथियाँ खराब होने का डर रहता था, और आज भी वही डर उसी स्तिथि मे है! हमने हर छेत्र मे तरक्की कर ली, कही ज्यादा तो कही कम पर अभी भी धर्म के प्रति हमारी सोच वैसी की वैसी है! आज भी वही हुआ की धर्म के कुछ रखवालों ने जोर शोर के साथ रुश्दी की मौजूदगी को तो क्या उनकी विडियो कांफ्रेव्न्सिंग को भी नहीं होने दिया! आखिर हम कब धार्मिक मुद्दों पर परिपक्व सोच जगा पाएंगे, आज एक फिल्म को "ए" क्लास बता कर हम जनता पर छोड़ सकते है की वह इसका खुद फैसला करे की फिल्म देखनी है या नहीं तो किताबों के विषय मे ऐसा क्यों नहीं हो सकता! खैर यह बात विचारधारा से सम्बंधित है और विचारों को बदलने मे आस पास की स्तिथियों का काफी महत्व होता है, पर हम न तो स्तिथियाँ बदल पाए न ही सोच!
                                                 इसी मुद्दे पर सरकार का रुख तो और भी हैरतंगेज़ था, रुश्दी को यह कह कर उत्सव मे उपस्थित होने से मना कर दिया गया की उनकी जान को खतरा है, यदि जान को खतरा था ही तो क्या दूसरे लोगो को इसका खतरा नहीं हो सकता था, यह बात मुझे दुविधा मे डालती है की क्या सरकार को रुश्दी की इतनी फ़िक्र थी की किसी अनहोनी के डर से उन्हें तो आने से रोक दिया गया पर बाकियों को मरने के लिए बुला लिया गया, पर असली बात तो आप भी जानते ही है! इसके बाद कहा जाता है की ऐसा कदम सरकार को चुनावो के दबाव के मद्ये नजर उठाना पड़ा, यह अच्छा मजाक था  अगर कोई समुदाय विशेष चुनावो के दौरान कसब को छोड़ देने की मांग करता या फिर  कोई समुदाय अगर खालिस्तान की मांग करता तो क्या सरकार वोट बैंक की खातिर ऐसे फैसले भी ले लेती? यह बात कह कर हमारी सरकार ने वोट के लालच मे उस स्तर तक गिर के दिखा दिया जहाँ देश के सबसे बड़े राज्य की शासन व्यवस्था एक आदमी की सुरक्षा कर सकने के मुद्दे से पल्ला झाड़ देती है!
                                              सरकार का ऐसा रवैया  हमारी धार्मिक सोच को भी विकसित नहीं होने देता, इस सोच मे परिपक्वता की  काफी जरुरत है, वरना रचनात्मकता की हत्या होती रहेगी! सोच का दायरा बढ़ाना होगा वरना अभ्व्यक्ति की स्वतंत्रता आपके पास होगी और सेंसरशिप की स्वतंत्रता दूसरे के पास!

लालू सही कहिन!

मेरी अधिक्तर भावनाओ को यह कार्टून ही स्पष्ट कर देता है, जी हाँ मै जिक्र कर रहा हूँ हमारे मनोरंजन से भरपूर सांसद लालू जी का और लोकपाल के सम्बन्ध मे दिए गए उनके भाषण का! खैर इस सम्बन्ध मे बाद में बात करते हैं पर यह तो हमे मानना ही होगा की अगर शीतकालीन सत्र मे लालू जी मौजूद न होते तो यह सत्र काफी बोरियत भरा रहता! पर शुक्र है की लालू सभी सांसदों के मनोरंजन के लिए वह मौजूद थे, और सांसदों ने इतनी शांति से लोकपाल के विषय मे भी बातें नही की, जितनी शांति से लालू का भाषण सुना! लालू जी की बातों मे सच्चाई भी इतनी ही थी इसी कारण लालू जी की बातों को सभी ने सुना भी! लालू जी का लोकपाल ड्राफ्ट के बारे मे कहना था की "यह मौत का वार्रेंट है और इसको बिलकुल पास मत करना, भले ही चुनाव हार जाना पर इस मौत के वार्रेंट को पास मत करना"- देखिये इन दो पंक्तियों मे कितनी सच्चाई है! लालू जी जानते है की यहाँ यह बिल पास हुआ और वहाँ इनकी जेल यात्रा की टिकेट कटी, अरे लालू जी क्या संसद मे बैठा हर चोर यह जनता है, पर साफ़ तौर पर कहा सिर्फ लालू ने! अगर हमारे देश को तरक्की चाहिए तो ऐसे ही सच  बोलने वाले नेता लोगो की जरुरत है, आखिर किस देश की संसद मे इतना सच बोला जाता है?
                                                                                 मै उनके भाषण की कुछ और बातों को साफ़ करना चाहता हूँ जो वह करना भूल गए थे! उन्होंने अपने भाषण मे कहा की हम 1948 मे आये और 1947 मे अंग्रेज भाग गए, बिलकुल ठीक कहा इन्होने पर लालू जी का यह "दूर भगाओ का सिधान्त" और भी कई बातों पर लागू होता है! वह बिहार की सत्ता मे आये तो बिहार की तरक्की भाग गयी, शीतकालीन सत्र मे संसद आये तो संसद पर से जनता का विशवास भाग गया और कही गलती से प्रधानमंत्री बन जाते तो कोई बड़ी बात नहीं थी की लोकतंत्र भी भाग जाता, तो अंग्रेज़ किस खेत की मूली थे! उनकी और बातें तो मुझे याद नहीं आ रही पर इन सब बातों के बाद कह सकता हूँ की अगर ऐसे कुछ और नेता हमारे देश को मिल जाएँ तो देश का कल्याण होना सुनिषित ही है!

Tuesday, January 3, 2012

एक और गांघी का डर

कोई नेता गाँधी और अन्ना हजारे की तुलना बर्दाश नही कर पा रहा, यह मत सोचिये की यह गाँधी के आदर्शो से प्रभावित है या इन्हें राष्ट्रपिता का महत्व कम हो जाने का डर है, इतनी ही परवाह होती तो देश को डुबाने मे न लगे होते! असलियत मे डर इस बात का है की कही जनता फिर किसी को गाँधी या जयप्रकाश मान बैठी तो लेने के देने पड़ जाएँगे! वैसे भी गाँधी और जयप्रकाश जैसे लोग हमेशा सत्ता को लाइन पर लाने मे लगे रहते है, और हमारे नेता देश को सुधारने के लिए तो सत्ता मे आए नही है! खैर, जनता बहुत भोली है, वह फर्क नहीं समझ पाती, बस काम को देख फैसला कर लेती है की किसकी तुलना किस से करनी है! जैसे धोनी की तुलना कपिल देव से कर बैठी! हमारे नेता यह फर्क समझाने की हर संभव कोशिश करते रहते है पर वाजिब तर्क नहीं दे पाते! कहते है की गाँधी का दौर अलग था, परिस्तिथिया अलग थी, कहने का अर्थ बस यह समझिये की धोनी का वर्ल्ड कप जीतना तो बेकार गया क्योकि मुकाबला श्री लंका से था और कपिल जी ने वर्ल्ड कप इंग्लैंड से जीता था, परिस्थितियाँ अलग थी ना!!  वैसे देखा जाये तो कुछ परिस्थितियाँ अलग तो थी, जैसे पहले संसद चोर चला रहे थे (जो छुप कर देश लूट रहे थे) अब संसद डाकू चला रहे है (हिम्मत से खुल्ले आम देश लूटते है) बेशक काफी काफी फर्क है! मुझे नहीं लगता कभी गाँधी पर किसी अंग्रेज ने संघ का मुखोटा होने का इल्जाम लगाया होगा (अब तर्क देंगे की तब संघ थी ही नहीं, पर मेरे कहने का मतलब तो आप समझ ही गाते होंगे) पर हमारे नेता हर वह काम कर सकते है जो किसी ने न किया हो! आज गाँधी जी भी ऊपर से देश को देख यही कहते होंगे- हे राम!!