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Saturday, February 4, 2012

सेंसरशिप की स्वतंत्रता (freedom to sensor)

जयपुर साहित्य उत्सव के समाप्त होते ही मेरे मन से हिन्दुस्तान मे  पाई जाने वाली धर्मनिरपेक्षता, समानता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी कई धारणाये ख़त्म हो गयीं, और यह विश्वास हो गया की मै एक ऐसे लोकतंत्र मे हूँ जहाँ आप को सब कह सकने की स्वतंत्रता है सिवाए उसके जो आप कहना चाहते हैं! मै बात कर रहा हूँ जयपुर साहित्य उत्सव मे सलमान रुश्दी और उनकी किताब पर लगाये गए प्रतिबन्ध की! प्रतिबन्ध का कारण यह था की उनकी किताब से मुस्लिमो की भावनाओ को ठेस पहुँचती है, मै तह मानता हूँ की हिन्दुस्तान जैसे विविध धर्मो वाले देश मे हर धर्म की भावनाओ का ख्याल रखना जरुरी है, और यह एक विवादित  मुद्दा हो सकता था! पर मै एक सवाल पूछना चाहूँगा की आज से करीब 60 साल पहले भी अर्थात आजादी से पहले भी धर्म के नाम पर स्तिथियाँ खराब होने का डर रहता था, और आज भी वही डर उसी स्तिथि मे है! हमने हर छेत्र मे तरक्की कर ली, कही ज्यादा तो कही कम पर अभी भी धर्म के प्रति हमारी सोच वैसी की वैसी है! आज भी वही हुआ की धर्म के कुछ रखवालों ने जोर शोर के साथ रुश्दी की मौजूदगी को तो क्या उनकी विडियो कांफ्रेव्न्सिंग को भी नहीं होने दिया! आखिर हम कब धार्मिक मुद्दों पर परिपक्व सोच जगा पाएंगे, आज एक फिल्म को "ए" क्लास बता कर हम जनता पर छोड़ सकते है की वह इसका खुद फैसला करे की फिल्म देखनी है या नहीं तो किताबों के विषय मे ऐसा क्यों नहीं हो सकता! खैर यह बात विचारधारा से सम्बंधित है और विचारों को बदलने मे आस पास की स्तिथियों का काफी महत्व होता है, पर हम न तो स्तिथियाँ बदल पाए न ही सोच!
                                                 इसी मुद्दे पर सरकार का रुख तो और भी हैरतंगेज़ था, रुश्दी को यह कह कर उत्सव मे उपस्थित होने से मना कर दिया गया की उनकी जान को खतरा है, यदि जान को खतरा था ही तो क्या दूसरे लोगो को इसका खतरा नहीं हो सकता था, यह बात मुझे दुविधा मे डालती है की क्या सरकार को रुश्दी की इतनी फ़िक्र थी की किसी अनहोनी के डर से उन्हें तो आने से रोक दिया गया पर बाकियों को मरने के लिए बुला लिया गया, पर असली बात तो आप भी जानते ही है! इसके बाद कहा जाता है की ऐसा कदम सरकार को चुनावो के दबाव के मद्ये नजर उठाना पड़ा, यह अच्छा मजाक था  अगर कोई समुदाय विशेष चुनावो के दौरान कसब को छोड़ देने की मांग करता या फिर  कोई समुदाय अगर खालिस्तान की मांग करता तो क्या सरकार वोट बैंक की खातिर ऐसे फैसले भी ले लेती? यह बात कह कर हमारी सरकार ने वोट के लालच मे उस स्तर तक गिर के दिखा दिया जहाँ देश के सबसे बड़े राज्य की शासन व्यवस्था एक आदमी की सुरक्षा कर सकने के मुद्दे से पल्ला झाड़ देती है!
                                              सरकार का ऐसा रवैया  हमारी धार्मिक सोच को भी विकसित नहीं होने देता, इस सोच मे परिपक्वता की  काफी जरुरत है, वरना रचनात्मकता की हत्या होती रहेगी! सोच का दायरा बढ़ाना होगा वरना अभ्व्यक्ति की स्वतंत्रता आपके पास होगी और सेंसरशिप की स्वतंत्रता दूसरे के पास!

लालू सही कहिन!

मेरी अधिक्तर भावनाओ को यह कार्टून ही स्पष्ट कर देता है, जी हाँ मै जिक्र कर रहा हूँ हमारे मनोरंजन से भरपूर सांसद लालू जी का और लोकपाल के सम्बन्ध मे दिए गए उनके भाषण का! खैर इस सम्बन्ध मे बाद में बात करते हैं पर यह तो हमे मानना ही होगा की अगर शीतकालीन सत्र मे लालू जी मौजूद न होते तो यह सत्र काफी बोरियत भरा रहता! पर शुक्र है की लालू सभी सांसदों के मनोरंजन के लिए वह मौजूद थे, और सांसदों ने इतनी शांति से लोकपाल के विषय मे भी बातें नही की, जितनी शांति से लालू का भाषण सुना! लालू जी की बातों मे सच्चाई भी इतनी ही थी इसी कारण लालू जी की बातों को सभी ने सुना भी! लालू जी का लोकपाल ड्राफ्ट के बारे मे कहना था की "यह मौत का वार्रेंट है और इसको बिलकुल पास मत करना, भले ही चुनाव हार जाना पर इस मौत के वार्रेंट को पास मत करना"- देखिये इन दो पंक्तियों मे कितनी सच्चाई है! लालू जी जानते है की यहाँ यह बिल पास हुआ और वहाँ इनकी जेल यात्रा की टिकेट कटी, अरे लालू जी क्या संसद मे बैठा हर चोर यह जनता है, पर साफ़ तौर पर कहा सिर्फ लालू ने! अगर हमारे देश को तरक्की चाहिए तो ऐसे ही सच  बोलने वाले नेता लोगो की जरुरत है, आखिर किस देश की संसद मे इतना सच बोला जाता है?
                                                                                 मै उनके भाषण की कुछ और बातों को साफ़ करना चाहता हूँ जो वह करना भूल गए थे! उन्होंने अपने भाषण मे कहा की हम 1948 मे आये और 1947 मे अंग्रेज भाग गए, बिलकुल ठीक कहा इन्होने पर लालू जी का यह "दूर भगाओ का सिधान्त" और भी कई बातों पर लागू होता है! वह बिहार की सत्ता मे आये तो बिहार की तरक्की भाग गयी, शीतकालीन सत्र मे संसद आये तो संसद पर से जनता का विशवास भाग गया और कही गलती से प्रधानमंत्री बन जाते तो कोई बड़ी बात नहीं थी की लोकतंत्र भी भाग जाता, तो अंग्रेज़ किस खेत की मूली थे! उनकी और बातें तो मुझे याद नहीं आ रही पर इन सब बातों के बाद कह सकता हूँ की अगर ऐसे कुछ और नेता हमारे देश को मिल जाएँ तो देश का कल्याण होना सुनिषित ही है!