पिछले दिनों अंधविशवास के खिलाफ लड़ने वाले नरेन्द्र दाभोलकर की गोली मार कर हत्या कर दी गयी। यह सब उनकी अंधविशवास के खिलाफ लड़ाई का नतीजा था। तमाम नेताओं ने अपने बयानों से और मीडिया ने अपने विशेष कार्यक्रमों के अलावा लम्बे लम्बे संपादकीय प्रकाशित कर इस घटना की निंदा की हालांकि यह वही नेता थे जो कि इस घटना के कुछ ही समय बाद एक संत के कुकृत्य पर पर्दा डालने में इस तरह जुटे थे की जैसा यह उनका फ़र्ज़ हो और यह वही मीडिया था जो कि कृपा बरसाने वाले संतों के विशेष विज्ञापन प्रसारित करता रहा है और अभी भी करता है और इसके अलावा कई ऐसे समाचार पत्र भी हैं जो कि ना जाने कितने प्रकार के वशीकरण व चमत्कार की गारंटी देने वाले विज्ञापन प्रकाशित करता रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या के पीछे मात्र उन कुछ अपराधियों का हाथ था जिन्होंने उन्हें गोली मारी या उसके जिम्मेदार हम भी थे? आखिर क्यों धर्म आदि के विषय पर हम अपने तथाकथित मॉडर्न और खुल्ले विचारों के सींग और पूँछ दबा कर फिर उसी बिल में जा कर घुस जाते हैं जहाँ नरेन्द्र दाभोलकर जैसे विचार हमे बर्दाश नहीं होते। वास्तव में हमारा परिवेश हमे इस तरह से प्रोग्राम करता है कि इन विषयों के आगे हमे ठगे जाना और शोषित होना भी गलत नहीं लगता।
इस संबंध में मुझे एक वाक्या याद आता है जो ऊपर लिखित मेरी बातों की पुष्टि भी करता है। हमारे फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में नया नया एक परिवार किराय पर रहने आया था. परिवार में तीन ही सदस्य थे. पति पत्नी और एक छोटा बच्चा. एक दोपहर कॉलेज से मेरे घर लोटने पर मैंने पाया कि कुछ किन्नर उस परिवार से नया घर खरीद लेने की ख़ुशी में नाजायज रकम की मांग कर रहे थे. वह परिवार उन्हें यह समझाने में नाकाम साबित हो रहा था कि वह किरायदार हैं मकान मालिक नहीं. किन्नरों का व्यवहार डराने धमकाने वाला था. कुछ देर बाद ग्यारह हज़ार रूपये की वह रकम सात हज़ार पर आ कर रुकी और किन्नर डरा धमका कर पैसे ले जाने मे कामयाब रहे. उसी दिन शाम के समय मैंने ही उनसे यह पूछ लिया कि आखिर आपने उन्हें पैसे क्यों दिए? उन किन्नरों का व्यवहार भी सही नहीं था फिर भी? इस जवाब का सवाल उन्होंने सिर्फ इतना कह कर दिया कि किन्नरों को नाराज करना सही नहीं होता। ऐसा करना बुरी किस्मत को न्योता देने के बराबर है। मैं यहाँ इतना बताता चलता हूँ कि वह परिवार डॉक्टर प्रष्ठभूमी का था। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि क्यों कम पढ़े लिखे लोग इस तरह के जंजाल में फंस जाते है। आखिर क्यों कुछ संत लोगो की तकलीफों का फायदा उठाने में कामयाब हो जाते हैं। दाभोलकर की हत्या से पहले यदि अंधविशवास उन्मूलन विधेयक पास हो गया होता तो वैज्ञानिक सोच को जरूर बल मिलता। दाभोलकर की कुर्बानी व्यर्थ ना जाए इसके लिए जरुरी है कि लोग मॉडर्न विचारों को भी अपनाएँ।
इस संबंध में मुझे एक वाक्या याद आता है जो ऊपर लिखित मेरी बातों की पुष्टि भी करता है। हमारे फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में नया नया एक परिवार किराय पर रहने आया था. परिवार में तीन ही सदस्य थे. पति पत्नी और एक छोटा बच्चा. एक दोपहर कॉलेज से मेरे घर लोटने पर मैंने पाया कि कुछ किन्नर उस परिवार से नया घर खरीद लेने की ख़ुशी में नाजायज रकम की मांग कर रहे थे. वह परिवार उन्हें यह समझाने में नाकाम साबित हो रहा था कि वह किरायदार हैं मकान मालिक नहीं. किन्नरों का व्यवहार डराने धमकाने वाला था. कुछ देर बाद ग्यारह हज़ार रूपये की वह रकम सात हज़ार पर आ कर रुकी और किन्नर डरा धमका कर पैसे ले जाने मे कामयाब रहे. उसी दिन शाम के समय मैंने ही उनसे यह पूछ लिया कि आखिर आपने उन्हें पैसे क्यों दिए? उन किन्नरों का व्यवहार भी सही नहीं था फिर भी? इस जवाब का सवाल उन्होंने सिर्फ इतना कह कर दिया कि किन्नरों को नाराज करना सही नहीं होता। ऐसा करना बुरी किस्मत को न्योता देने के बराबर है। मैं यहाँ इतना बताता चलता हूँ कि वह परिवार डॉक्टर प्रष्ठभूमी का था। ऐसे में यह समझना मुश्किल नहीं रह जाता कि क्यों कम पढ़े लिखे लोग इस तरह के जंजाल में फंस जाते है। आखिर क्यों कुछ संत लोगो की तकलीफों का फायदा उठाने में कामयाब हो जाते हैं। दाभोलकर की हत्या से पहले यदि अंधविशवास उन्मूलन विधेयक पास हो गया होता तो वैज्ञानिक सोच को जरूर बल मिलता। दाभोलकर की कुर्बानी व्यर्थ ना जाए इसके लिए जरुरी है कि लोग मॉडर्न विचारों को भी अपनाएँ।
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