आज हिन्दुस्तान को दुनिया का सबसे बड़ा "झूठा" लोकतान्त्रिक देश कहने में मुझे झिझक नहीं होगी क्योंकि आज फिर अन्ना हजारे को लोकपाल बिल को पास करवाने के लिए अन शन-पर बैठना पड़ रहा है, और वह भी सरकार द्वारा लिखित आश्वासन देने के बावजूद! क्या यह है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र? हमारे सांसद कहते है की हम जनता के प्रतिनिधि है, क़ानून बनाना हमारा काम है, पर क्या जनता का काम नही है सांसदों को यह बताना की किस कानून की जरूरत है और किसकी नहीं? संविधान मे लिखा है we the people of india, want justice!! क्या ये लोकतांत्रिक अधिकार नही है की जब सत्ताधारी सरकार काम न करे तो अपने अधिकारों के लिए आवाज उठायी जाए? इसे हमारे सांसद संसद का अपमान मानते है,
पर एक दूसरे को संसद मे गाली देना या एक दूसरे पर टेबल और कुर्सी फेकना इनके अनुसार संसद की शान बढाता है! हिन्दुस्तान के संसद की स्थापना इस भावना के साथ की गयी थी की सरकार जनता की सेवक होगी पर हमारी व्यवस्था ने सेवको को मालिक बना दिया है!
जब इस व्यवस्था को सुधारने के लिए अन्ना हजारे जैसा आदमी सामने आया तो सरकार ने हर संभव कोशिश की इन्हें दागी साबित करने की, टीम अन्ना के सदस्यों पर लाल्छन लगाने की और हैरानी इस बात की है की लोगो ने भी सरकार की बातो पर विशवास किया! "सरकार का कहना था की हमने दागा मंत्रियो को जेल मे भेजा तो लोकपाल की क्या जरूरत पर ऐसा तब हुआ जब हमारी
न्यायपालिका ने मंत्रियो के खिलाफ कार्यवाही करने को कहा"! सरकार ने बेबुनियादी क़ानून बना कर जनता को दिखाना चाहा की वह भरष्टाचार के खिलाफ काम कर रही है, एक उदाहरण है की "सरकारी सिटिज़न चार्टर मे कहा गया था की हर राज्य मे 5 लोगो की टीम काम करेगी जो देखेगी की कौन सा सरकारी अफसर तय समय पर काम नही कर रहा, जरा सोचिये की 199,581,477 की जनसँख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश का काम 5 लोगो की टीम कैसे सँभालेगी! सरकार ऐसे क़ानून बनाने मे तो माहिर है, क्योंकि जनता को कानूनों की जानकारी नहीं होती पर जब टीम अन्ना के सदस्य जो की क़ानून के जानकार थे, लोगो के हकों के लिए लड़ने निकले तो सरकार ने इन पर निशाना साधना शुरू किया! अरविन्द केजरीवाल को 9 लाख का नोटिस भेजा गया क्योंकि उन्होंने छुट्टियो के दौरान भरष्टाचार के खिलाफ काम किया था जिसके लिए उन्हें मैग्सिस अवार्ड भी दिया गया था, पर सरकार को यह हजम नही हुआ और छुट्टियों के दौरान सामजिक कामों मे शामिल रहने का कारण देते हुए उन्हें नोटिस दिया गया "अर्थात सरकार चाहती है की आप काम के दौरान भरष्टाचार कर लें पर छुट्टियों पर समाज सेवा न करे"! किरण बेदी पर इलज़ाम लगाया की उन्होंने बिज़नस क्लास की टिकट ले कर इकोनोमी क्लास मे हवाई यात्रा की और बचा हुआ पैसा एक N.G.O को दे दिया (जो की सच भी था) पर गौर करने वाली बात यह है की उन्होंने वह पैसा खुद पर नहीं उस N .G.O पर खर्च किया जो तिहाड़ जेल के कैदियों के बच्चो के लिए काम करती है,
"पर हमारे मंत्री तो मिल बाँट कर सब खा जाते है"!
यहाँ कमी इच्छाशक्ति की है, यदि सरकार चाहती तो अभी तक लोकपाल बिल पास हो चुका होता, जैसा की उत्तराखंड जैसे नवनिर्मित राज्य मे शसक्त लोकायुक्त पारित हो गया, "ध्यान देने वाली बात यह है की वहाँ लोकायुक्त केवल 3 मीटिंग के बाद ही पारित हो गया और ऐसा वहाँ के मुख्यमंत्री खंडूरी जी ने SPECIAL SESSION बुला कर करवाया, पर कौंग्रेस कहती है की ऐसा उन्होंने चुनावो से पहले वोट पाने के लिए किया, पर मै कहता हूँ की एक मंत्री अच्छा क़ानून बना कर वोट प्राप्त करता है तो इसमें गलत क्या है?
अन्य मंत्री तो शराब के बदले वोट मांगते है"! सचाई तो यह है की सरकार चाहे तो 48 घंटो के अन्दर मजबूत लोकपाल क़ानून बना दे, पर शायद सरकार को डर है की कहीं आधी कौंग्रेस जेल न चली जाए! या सरकार ने इसको नाक का सवाल बना लिया है और सत्ता का गुरूर इतना सर चढ़ चुका है की अब जनता संसद से कम दिखने लगी है! पर याद रखना चाहिए की 5 साल बाद ( 2014 ) जनता ही तेय करेगी की कौन देश चलाएगा? तो आज से तो मै अपने देश को निर्वाचित तानाशाही पर आधारित देश कहूँगा जहाँ जनता के प्रतिनिधि जनता द्वारा चुन के तो आते है पर चुने जाने के बाद तानाशाही चलाते है!