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Sunday, March 9, 2014

युवा महान, पर बदनाम

हमारा देश युवा शक्ति के रूप मे दुनिया भर मे पहचाना जा रहा है, पर देश मे युवा फिर भी बदनाम है! किसी के लिए हम बिगड़े हुए है तो किसी के लिए राह से भटके और किसी के लिए अपनी सभ्यता को भूलते जा रहे नालायक!!! पर हर पीड़ी के युवा के सर शायद यह इल्ज़ाम लगता ही है, भगत सिंह क समय उस पीड़ी को भी इन्ही इल्जामो का सामना करना पड़ा था, पर सच तो यह है की युवा पीड़ी परिवर्तन के साथ आती है कही "लेनिन" तो कही "भगत सिंह" के रूप मे और आज "अन्ना क्रांति" के रूप मे! यह समय से चली आ रही बेकार की परम्पराओं को बिना तर्क के नहीं मानता, यह सवाल करता है कुछ भी अपनाने से पहले, न की इस लिए कुछ भी मान लेता है क्योंकि उस से पहले की पीड़ी उन बातो को मान रही होती है, और शायद यही वजह है की इस युवा पीड़ी को इतनी बातें सुननी पड़ती है! (युवा उम्र से नहीं सोच से बना जाता है) यह  पीड़ी अपने हको के लिए लड़ने को तैयार रहती है, वह सब कुछ करने को तैयार रहती है जो अभी तक किसी ने ना किया हो!! जो कहते है की  आज का भारतीय युवा गैर जिम्मेदार या अपनी संस्कृति को भूलता जा रहा है वह ज़रा गौर करे की राष्ट्रमंडल खेलो की सफलता मैं युवा पीड़ी ने ही सारी व्यवस्था संभाली और बदनाम कराया पुरानी या कहूँ बुजुर्ग पीड़ी ने! इस तरह यह तो साफ़ है की युवा पीड़ी देश के लिए बिना स्वार्थ के चलने को तैयार है पर पीछे खीचते है अधेड़ उम्र के लोग!! मेरे अनुसार युवाओ के सर इस तरह के इलज़ाम हर दौर मे लगते रहेंगे पर यह भी साफ़ है की देश तरक्की करेगा तो इन्ही के सहारे!!!!

असभ्य संस्कृति के रखवाले

हिन्दुस्तान मे अंग्रेजो ने यह कह कर शासन किया था की "भारतीय असभ्य होते है और हम इन्हें सभ्य बनायेंगे" यह बात उस समय के लोगो को सही नहीं लगी और लम्बे संघर्ष के बाद हमने अपना शासन अपने हाथो मे ले लिया इस उम्मीद के साथ की हम दिखा देगे की हमसे सभ्य कोई नही, पर आज मैं जब वर्तमान भारत को देखता हूँ तो अंग्रेजो की बातें और "असभ्य भारतीयों" का सिधांत मुझे गलत नहीं लगता! शायद असल मे हम सभ्यता से कोसो दूर है! मैं अपने साथ हुयी कुछ घटनाओ का जिक्र करूंगा और समझाने की कौशिश करूंगा की कैसे छोटी छोटी जगहों पर हम भारतीय लोग खुद को असभ्य दर्शाने से नहीं चूकते!
                                                                             पहली घटना कुछ ख़ास अजीब नहीं है और आप के साथ भी रोज घटती होगी! हम मे से बहुत से लोग बसों और मेट्रो जैसे पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तमाल करते है और एक साधारण सी समझ है की किसी ट्रेन या बस मे चड़ने से पहले जो लोग उतरना चाहते है उन्हें उतरने देना चाहिए! पर इस साधारण सी बात मे हम अपनी साधारण समझ खो बैठते है और धक्का मुक्की तो आम बात है, हालत तो यह है की पब्लिक ट्रांसपोर्ट मे बैठने से पहले हम यह सोच लेते है की धक्का मुक्की के लिए तैयार रहना होगा! ऐसी स्तिथि पश्चिमी देशो मे नहीं है, वहा सब्र से ट्रेनों और बसों का प्रयोग किया जाता है! शायद यही है हमारी सभ्य संस्कृति!
                                दूसरी घटना उस समय की है जब हमारे पड़ोस मे एक नया परिवार रहने आया, उनके आने के एक दो दिन बाद की बात है, मैं कॉलेज से घर आया ही था की मैंने देखा कुछ किन्नर उनसे नया घर लेने की ख़ुशी के रूप मे 11000 रूपये की मांग कर रहे थे, मांग कहना ठीक नहीं लगता यह कह सकता हूँ की उन्हें धमका रहे थे! 11000 रूपये कोई छोटी रकम नहीं होती ऐसे किसी रिवाज के बारे मे मैंने सुना भी नहीं था! कुछ देर बाद वह किन्नर अगले दिन आने की धमकी दे कर चले गए! इसके बाद जब हमने उन्हें यह सुझाव दिया की यदि यह कल भी तंग करे तो आप पुलिस मे कंप्लेंट करना पर उनके घर के एक बुजुर्ग ने कहा की ऐसा करना ठीक नहीं यह अपशकुन होता है और अगले दिन उन्होंने कुछ रकम दे कर किन्नरों को मना भी लिया! पर इस से यह बात मुझे समझ आई की अभी भी हम अपने अधिकारों को ले कर जागरूक नहीं है, कोई हमारे घर मे घुस कर हमे धमकता है और हम विरोध करने की जगह हाथ जोर कर अंधविश्वासों का पालन करते रहते है! यहाँ मुझे अपने देश की संस्कृति पर  गर्व नहीं होता, शर्म आती है!
                                                                       तीसरी घटना, कुछ समय पहले हमारे कॉलेज मे रक्तदान शिविर लगा था और उस दौरान मैंने कई लोगों को रक्त दान करते देखा जो की एक सुखद अनुभव था पर ऐसे लोगो की भी कमी नही थी जो ना तो खुद रक्तदान कर रहे थे और दूसरों को समझा रहे थे की यह ठीक नहीं है, इस से खून की कमी होती है (हालाँकि दान किये गए खून की आपूर्ति 24 के भीतर हो जाती है) और कुछ का कहना था की हमे घरवालो ने माना किया है! यह कितनी अजीब बात थी की यह वही कॉलेज के छात्र थे जो युवा होने का दम ख़म भरते है और रक्तदान के प्रति सचेत नहीं है! यहाँ मैंने देखा की अभी भी हमारा युवा जागरूक नही है, और शायद हिन्दुस्तान को खुद को युवा शक्ति कहने से पहले इन्हें जागरूक करना चाहिए! पश्चिमी देशो मे स्तिथि बिलकुल अलग है वहां सामजिक जागरूकता कई गुना ज्यादा है!
                                                                             चौथी घटना हाल ही मे मेरे साथ घटी, कॉलेज से घर आते वक्त देर हो जाने के कारण जल्दबाजी मे मैं महीलाओं की सीट पर बैठ गया और कुछ देर तक इस बात पर मेरा ध्यान भी नही गया, मेरा ध्यान इस ओर तब गया जब एक छोटी सी लड़की को मैंने मेरी और इशारा करते देखा, वह अपनी माँ से कुछ कह रही थी, मैंने गौर किया की वह अपनी माँ से कह रही थी की यह सीट महिलाओं की है पर उसकी माँ ने उसे चुप चाप खड़े रहने के लिए कहा! इस दौरान मे खुद खड़ा हो गया और उस लड़की को सीट दी! पर यह सोचता रहा की हमारे देश मे बचपन से ही बच्चों को अपने हकों की मांग ना करना सिखा दिया जाता है, अगर मे तब नही खड़ा होता तो शायद वह लड़की फिर कभी कहीं और अपने हक की चीज नहीं मांगती! और अपने देश मे दुसरे लोग हकों की कितनी चिंता करते है यह इसी बात से साफ़ था की मुझ से पहले किसी और ने किसी महिला के लिए सीट नहीं छोड़ी थी!
अंत मे कहूँगा की बेहतर होता अगर अंग्रेजो के राज मे हम थोड़ी सभ्यता सीख लेते! और जो, पश्चिमी सभ्यता की बुराइयां करते नहीं थकते उन्हें सोचना चाहिए की अभी क्या क्या सीखना बाकी है, वहां ट्रेन और बसों मे सफर करने का तरीका लोगो को पता है, सामजिक जागरूकता और अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता वहां  कई गुना ज्यादा है, वहां टूरिस्ट लोगो का सम्मान किया जाता है, "अतिथि देवो भवा" हमारा नारा है पर पालन वहां होता दिखाई देता है , जानवरों को घुमाने के बाद उनकी गन्दगी उनके मालिको द्वारा ही साफ़ की जाती है आदि आदि..!!!! और समझदार कह गए है की किसी से कुछ सीखने मे कोई बुराई नहीं है!

प्रतिनिधी और अवमानना

हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में प्रतिनिधी शब्द की बहुत एहमियत है, प्रतिनिधी अर्थात जनता की वह आवाज जो संसद मे बैठ कर जनता की सोच को कानूनों और नीतियों के रूप मे पेश करती है! इन प्रतिनिधियों का दायित्व बनता है की जिस देश की नुमाइंदगी यह लोग कर रहे है उस देश की जनता के लिए बेहतर से बेहतर क्या हो सकता वह करें, पर यह सोच गठबंधन की घटिया राजनीति की बली चढ़ गयी! अगर एक मुख्यमंत्री और सत्ता दल मे शामिल मुख्य पार्टी के अध्यक्ष की यह सोच है की सिर्फ और सिर्फ "कम कीमतें" वोट बैंक की बुनियाद बन सकती है तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए काफी अफसोस जनक होगा की उसके प्रतिनिधी गुणवत्ता के महत्व से अपरिचित है या फिर सत्ता और वोट की खातिर देश की तर्रक्की तक से मूंह फेर सकते है! दिनेश त्रिवेदी के बजट पर तृणमूल कांग्रेस द्वारा मचाये गए हाय तौबा से उपरोक्त कही गयी बातें ही समझ मे आती है, दिनेश त्रिवेदी को इसलिए बली का बकरा बनना पड़ा क्योंकि उनके द्वारा रेल बजट में की गयी मामूली बढ़ोत्तरी ममता जी को उनके वोट बैंक मे डाके की तरह लग रही थी! लालू से लेकर ममता तक यह सोच नहीं बदली की लोग बढ़ी हुयी कीमतों से परेशान नहीं होते अगर बेहतर सुविधा या गुणवत्ता का वादा साथ मे किया जाए, और जितनी बढ़ोत्तरी त्रिवेदी के बजट मे की गयी थी उसे वापस ले लेने पर भी कोई खासा फर्क नहीं पड़ेगा हाँ बस जनता को फिर से मौका मिलेगा रेलवे की जर-जर होती व्यवस्था को कोसने का! ममता जी  को अब जल्द समझ लेना चाहिए की जिस देश की जनता की आवाज बन कर वह संसद में पहुंची है, उस देश की जनता को कच्चा लालच देने से ज्यादा लाभ उन्हें नहीं मिल पायेगा, जनता चाहती है बेहतर सुविधा, बेहतर गुणवत्ता अच्छा होगा वेह प्रतिनिधी होने का अर्थ समझे वरना विकल्प सरकार और लोगों दोनों के पास है!
                                      अब बात करूँगा अवमानना के विषये मे! हमारे सांसदों और विधायकों की गरिमा बहुत ही संवेदनशील है, बिलकुल भी सच सहेन नहीं कर पाते! यह सच भी है की अक्सर इंसान कुछ ऐसे काम कर जाता है जिसको वह खुद स्वीकार नही पाता, ऐसा ही कुछ हमारे सांसदों के साथ हुआ जब उन्होंने केजरीवाल के बयान पर विशेषाधिकार हनन नोटिस दायर कर दिया! इस कदम के बाद हम कह सकते है की सांसद मानना ही नहीं चाहते की 163 सांसदों के खिलाफ अपराधिक मामले चल रहे है, कभी कर्नाटक और कभी गुजरात विधान सभा मे यह प्रतिनिधी पोर्न के लुत्फ़ उठाते नजर आते है, वोट और नोट काण्ड भी संसद मे ही घटा इन्हें यह भी मालूम नहीं और भी ना जाने कितने मामलों से यह मूंह फेर लेते है विशेषाधिकार हनन नोटिस दायर कर के! खैर अच्छा ही है की केजरीवाल जैसे मंच आम जनता के पास उपलब्ध नहीं है वरना शायद हमारे सांसदों को ऐसा बहुत कुछ सुनने को मिल जाता जिसको सुन कर विशेषाधिकार की विशेषता खत्म हो जाती!

विकल्प कि आवाज

 स्विज़रलैंड मे यह व्यवस्था है की अगर आप कही कोई जुर्म होते या क़ानून टूटते हुए देख रहे है तो आप उस दृश्य को अपने मोबाइल के कैमरे मे कैद कर एक ख़ास वेबसाइट पर डाल सकते है जहाँ से सरकार उस पर कार्यवाही कर सकती है, इसके प्रभाव का आंकलन इस बात से किया जा सकता है की वहां कोई "च्वीन्ग्म" तक खा के नहीं थूकता! आज हिन्दुस्तान मे हर किसी के पास मोबाइल फ़ोन की सुविधा है, इन्टरनेट तक पहुँच भी आसान है (कम से कम शहरों में) तो हमारे देश मे इस विकल्प को क्यों नहीं अपनाया जा रहा! मै यह नहीं कह रहा की हम इस तरह के विकल्प से अनभिग्य है क्योंकि फेसबुक पर ट्रेफिक पुलिस द्वारा इस तरह की शुरुवात पहले ही की जा चुकी है और आज एक लाख से भी ज्यादा लोग इस से जुड़े हुए है और इसके द्वारा जो भी कर्यवाही अभी तक की गयी है उसमे ज्यादा श्रये जनता को ही जाता है, लोगो ने गलत नंबर प्लेट वाली गाड़ियों की तस्वीरे इस प्रष्ट पर डाली और गैर सरकारी वाहनों पर लगी लाल बतियों की तस्वीरे भी इस प्रष्ट पर डाली और नतीजा ऐसा था जिसकी कल्पना कम ही की जाती है की  कई रसूख वाले लोगो को भी कानून के आगे झुकना ही पड़ा! पर इसको सिर्फ उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है क्योंकि किसी भी बड़े स्तर पर सोशल मीडिया की ताकत का इस्तमाल अभी भी शुरू नहीं हुआ है जो की भारत जैसे देश मे काफी जरूरी भी है! इसके उलटे सरकार जब तब सोशल मीडिया पर सेंसरशिप की बात करती है! हाल ही में असाम हिंसा की ओट लेते हुए लगभग 310 वैबसाइट्स पर रोक भी लगायी गयी! अगर सरकार असाम हिंसा के लिए सारा इल्जाम सोशल मीडिया पर डालने की सोच रही है तो या तो वह खुद को ज्यादा होशियार समझती है या जनता को कम आंकती है! और मुख्यधारा की मीडिया भी कहीं न कहीं इसमें भागीदार है आखिर हों भी क्यों न अपने विकल्प के खिलाफ कोई भी बोलेगा! 
                                                                        हमारे देश की व्यवस्था काफी जटिल है और जटिलता से निपटने के लिए पारदर्शिता की जरुरत होती है और यह सोशल मीडिया पारदर्शिता की स्थापना कर सकता है! कुछ समय पहले तक जब लोकपाल के विषय मे बात चल रही थी तो कहा जा रहा था की लोकपाल को सारी ताकत नहीं दी जा सकती और इसी कारण यह मुद्दा ठन्डे बसते मे भी चला गया पर उस समय तक भी सोशल मीडिया का विकल्प किसी ने नहीं दिया! इसमें ताकत जनता के हाथो मे रहेगी जो की लोकतंत्र की बुनियाद है, फैसला भी न्याययालय द्वारा ही किया जायेगा जो की संविधान के अंतर्गत होगा और लाभ भी जनता को ही पहुंचेगा, यह लोकपाल का अच्छा विकल्प हो सकता था पर इस और ध्यान किसी ने नहीं दिया और वह भी तब जब भारत का एक बहुत बड़ा हिस्सा सोशल मीडिया से जुडा हुआ है! जब सोशल मीडिया द्वारा भरष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन खड़ा किया जा सकता है तो सोशल मीडिया द्वारा ही भरष्टाचार के खिलाफ लड़ा क्यों नहीं जा सकता? आखिर कितना मुश्किल होगा अगर आपसे कोई रिश्वत मांगे और आप उसका सबूत सोशल  मीडिया द्वारा सम्बंधित विभाग तक पंहुचा दे! मेरे अनुसार भरष्टाचार के खिलाफ इस से अच्छा हथियार कोई नहीं हो सकता!
                                                    पर मै यह मानता हूँ की हमारी सरकार इस विकल्प को जान चुकी है इसीलिए कोई न कोई बहाना बना कर इन पर नियंत्रण कसने की साजिश कर रही है! सरकार का कहना है की ऐसा सामजिक और धार्मिक भावनाओ को ठेस पहुँचने से रोकने के लिए किया जा रहा है तो मै पूछता हूँ की अगर एक बार कोई गलत तस्वीर साइट्स से हटा भी दी जाती है तो कैसे माना जाये की उस तस्वीर को डालने वाला फिर कोई ऐसी तस्वीर नहीं डालेगा और कैसे इस बात का निर्धारण होगा की क्या सही है और क्या गलत? एक उदहारण दे कर समझाना चाहूँगा की लोकपाल आन्दोलन के दौरान सरकार की आलोचना करते कई चित्र फेसबुक पद डाले गए या ट्विट्टर पर भी कई सरकार विरोधी बातें कही गयी और यदि सरकार के पास इन सब पर नियंत्रण करने की ताकत होगी तो जायज सी बात है की सरकार इन सब को भी गलत मान कर हटा देगी! तो जरुरत है जल्द से जल्द सोशल मीडिया की असली ताकत को सही तरह से उपयोग करने की!