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Thursday, December 22, 2011

लोकपाल का आना असंभव

लोकपाल पर युद्ध गर्माता जा रहा है, पुरे देश का ध्यान इस तरफ है की कब सरकार जन लोकपाल को पास करेगी पर यह तो वही बात हुई की चोर से उम्मीद करना की वह खुद पर मजबूत क़ानून लागू करे, आप को क्या लगता है? लालू  बिना वजह ही कमजोर लोकपाल से भी डर रहे है? मुझे नहीं लगता की वर्तमान भारत मे कोई लोकपाल आ पाएगा! क्यों? एक उदहारण देना चाहूँगा
                                                     हाल ही मे संसद मे हंगामो के बारे मे बहुत सुना होगा और बार बार संसद को स्थगित होते हुए भी देखा होगा पर श्रीमती मीरा कुमार चाहती तो हंगामा करने वोलो को संसद से उठा कर बाहर भी फेंक सकती थी (यह उनके अधिकारों मे शुमार है) पर हमारे नेता जान बूझ कर एक कमजोर स्पीकर का चुनाव करते है जो इस तरह के अधिकारों का प्रयोग उन पर ना करे, और हम इनसे उम्मीद लगाये बैठे है की यह लोकपाल, नहीं नहीं मजबूत लोकपाल लायेंगे! ऐसा हुआ तो लोकपाल इन्हें देशकी राजनीति से उठा कर बाहर फेंक देगा और ऐसा यह होने नहीं देंगे! लोकपाल आया तो सांसदों को "इंसानों" की तरह संसद मे व्यवहार करना होगा जो हमारे सांसदों की शान के खिलाफ होगा!! लोकपाल की उम्मीद इनसे न ही लगायी जाये तो अच्छा होगा! आप कुछ कहना चाहते है..????

Monday, December 19, 2011

असमर्थ सुधार (unable to improve)


आज का विशेषांक शिक्षा से सम्बंधित है! सरकार ने भी शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने के लिए काफी समय से चली आ रही व्यवस्था मे क्रांतिकारी बदलाव किया! सुधारों का मकसद था शिक्षा को आसन बना कर छात्रों की उसमे रुचि पैदा करना और इसके लिए  सरकार ने शिक्षा व्यवस्था में नए सुधार किए और सी.सी.ई(Continuous and Comprehensive Evaluation) की शुरुवात की! बहुत समय से महसूस किया जा रहा था की शिक्षा व्यवस्था मे सुधार की आवश्यकता है, शिक्षा का अर्थ केवल अच्छे अंक लाना और किताबे रटना भर रह गया था! ऐसे मे सी.सी.ई एक बहुत ही अच्छा कदम था, इसका उद्येश्य था शिक्षित करना न की किताबी ज्ञान देना! इस व्यवस्था की सबसे बड़ी खूबी यही थी की छात्र को अंको के आधार पर न आंका  जाए बल्कि जो छात्र जिस किसी विषय मे बेहतर कर सकता है उसे उसमे बढ़ावा देना, चाहे वह खेल से सम्बंधित हो, संगीत से, नृत्य से या किसी अन्य विषय से! ऐसी व्यवस्था इस से पहले नहीं अपनाई गई थी जहाँ किताबो से ज्यादा ध्यान छात्र की रूचि पर दिया जाए! इन सब बातों के आधार पर कहा जा सकता है की यह एक सुन्हेरी व्यवस्था थी, पर जिस प्रकार के परिणाम की उपेक्षा की गयी थी वेसे परिणाम बीते सालों  मे देखने को नही मिले, कारण साफ़ था की इस व्यवस्था को उस तरह से नहीं लागू किया गया जिस तरह से किया जाना था! जैसा की अक्सर हिन्दुस्तान में कागजों पर बनायी गयी योजनायें वास्तविक धरातल पर बिलकुल ही अलग तरह से कार्यान्वित होती है वैसा ही कुछ इस नयी शिक्षा प्रणाली के साथ हुआ!
                                        इस व्यवस्था मे अध्यापको से उम्मीद की गई थी की वह कुछ नए तरीको से शिक्षा को दिलचस्प बनाने की कोशिश करेंगे, इसके लिए सीबीएसई ने सुझाव भी दिया की पढाई के अलावा कुछ अन्य विषयों पर छात्रों को साथ काम करने के लिए प्रेरित किया जाये ताकि वह किताबो के अलावा अन्य ज्ञान भी ले और साथ टीम मे काम करना भी सीखे और साथ ही यह भी कहा की ऐसे काम स्कूलों मे अध्यापको के प्रत्यक्ष नेतृत्व मे करवाए जाए, पर इस पर इस तरह से अमल नहीं किया गया! आम तोर पर देखा जा सकता है की अध्यापको ने काम को सरल बनाने के लिए घरों पर परियोजना कार्य करने को दिए ताकि ओपचारिकता पूरी हो जाए की अध्यापकों ने परियोजना कार्य पूरे करवा लिए है, परियोजना कार्य भी ऐसे दिए जाते है जिसमे किसी तरह की रचनात्मकता नहीं होती, अब बस फर्क यह रहा की पहले जो छात्र कितोबो की बातें अपनी कापियों मे लिखते थे वही अब फाईलों मे लिखने लगे! इस तरह जो व्यवस्था छात्रों का बोझ कम करने के लिए बनायीं गई थी उसी ने छात्रों का काम दो गुना कर दिया! आम तोर पर यह भी देखा गया की जो छात्र इस तरह के परियोजना कार्य करना नहीं जानते या समझ नहीं पाते उन्होंने अपना काम दुकानों से करवाना शुरू कर दिया, जिस से ज्ञान मे बढ़ावा होने की जगह माँ बाप के खर्चो मे बढ़ावा हुआ! इस के आलावा सीबीएसई का सुझाव था की छात्रों को उनके शोंक के मुताबिक़ काम करने के लिए प्रेरित किया जाए, पर स्कूलों ने इसमे भी खाना फुर्ती ही की, एक्स्ट्रा करिकुलर एक्तिविटिस के नाम पर एक या दो प्रोग्राम अपने स्कूलों मे शुरू करवा के सभी छात्रों को उसमे भाग लेने के लिए मजबूर किया, चाहे वह इसमें रूचि रखते हो या नहीं! इस सब कमियों के अलावा निजी स्कूलों ने सभी नियमों को ताक़ पे रख कर उन छात्रों को (जो अपने स्कूल मे बोर्ड की परीक्षा के लिए बैठते है)  पहले ही प्रशन पत्र उपलब्ध करवाना शुरू कर दिया है ताकि वह अपने स्कूल का रिकॉर्ड बेहतर बना सके! और सबसे हैरानी वाली बात यह है की इन सबके खिलाफ  शिकायत करने की भी कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं की गयी है! इस तरह जो व्यवस्था सुधार के लिए बनायीं गयी थी उसने व्यवस्था और ख़राब कर दी! इसमें जल्द से जल्द सुधार किया जाना चाहिए!!

Sunday, December 11, 2011

निर्वाचित तानाशाही (ELECTED DICTATORSHIP)

आज हिन्दुस्तान को दुनिया का सबसे बड़ा "झूठा" लोकतान्त्रिक देश कहने में मुझे झिझक नहीं होगी क्योंकि आज फिर अन्ना हजारे को लोकपाल बिल को पास करवाने के लिए अन शन-पर बैठना पड़ रहा है, और वह भी सरकार द्वारा लिखित आश्वासन देने के बावजूद! क्या यह है दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र? हमारे सांसद कहते है की हम जनता के प्रतिनिधि है, क़ानून बनाना हमारा काम है, पर क्या जनता का काम नही है सांसदों को यह बताना की किस कानून की जरूरत है और किसकी नहीं? संविधान मे लिखा है we the people of india, want justice!! क्या ये लोकतांत्रिक अधिकार नही है की जब सत्ताधारी सरकार काम न करे तो अपने अधिकारों के लिए आवाज उठायी जाए? इसे हमारे सांसद संसद का अपमान मानते है, पर एक दूसरे को संसद मे गाली देना या एक दूसरे पर टेबल और कुर्सी फेकना इनके अनुसार संसद की शान बढाता है! हिन्दुस्तान के संसद की स्थापना इस भावना के साथ की गयी थी की सरकार जनता की सेवक होगी पर हमारी व्यवस्था ने सेवको को मालिक बना दिया है!
                                                                               जब इस व्यवस्था को सुधारने के लिए अन्ना हजारे जैसा आदमी सामने आया तो सरकार ने हर संभव कोशिश की इन्हें दागी साबित करने की, टीम अन्ना के सदस्यों पर लाल्छन लगाने की और हैरानी इस बात की है की लोगो ने भी सरकार की बातो पर विशवास किया! "सरकार का कहना था की हमने दागा मंत्रियो को जेल मे भेजा तो लोकपाल की क्या जरूरत पर ऐसा तब हुआ जब हमारी न्यायपालिका ने मंत्रियो के खिलाफ कार्यवाही करने को कहा"! सरकार ने बेबुनियादी क़ानून बना कर जनता को दिखाना चाहा की वह भरष्टाचार के खिलाफ काम कर रही है, एक उदाहरण है की "सरकारी सिटिज़न चार्टर मे कहा गया था की हर राज्य मे 5 लोगो की टीम काम करेगी जो देखेगी की कौन सा सरकारी अफसर तय समय पर काम नही कर रहा, जरा सोचिये की 199,581,477 की जनसँख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश का काम 5 लोगो की टीम कैसे सँभालेगी! सरकार ऐसे क़ानून बनाने मे तो माहिर है, क्योंकि जनता को कानूनों की जानकारी नहीं होती पर जब टीम अन्ना के सदस्य जो की क़ानून के जानकार थे, लोगो के हकों के लिए लड़ने निकले तो सरकार ने इन पर निशाना साधना शुरू किया! अरविन्द केजरीवाल को 9 लाख का नोटिस भेजा गया क्योंकि उन्होंने छुट्टियो के दौरान भरष्टाचार के खिलाफ काम किया था जिसके लिए उन्हें मैग्सिस अवार्ड भी दिया गया था, पर सरकार को यह हजम नही हुआ और छुट्टियों के दौरान सामजिक कामों मे शामिल रहने का कारण देते हुए उन्हें नोटिस दिया गया "अर्थात सरकार चाहती है की आप काम के दौरान भरष्टाचार कर लें पर छुट्टियों पर समाज सेवा न करे"! किरण बेदी पर इलज़ाम लगाया की उन्होंने बिज़नस क्लास की टिकट ले कर इकोनोमी क्लास मे हवाई यात्रा की और बचा हुआ पैसा एक N.G.O को दे दिया (जो की सच भी था) पर गौर करने वाली बात यह है की उन्होंने वह पैसा खुद पर नहीं उस N .G.O पर खर्च किया जो तिहाड़ जेल के कैदियों के बच्चो के लिए काम करती है, "पर हमारे मंत्री तो मिल बाँट कर सब खा जाते है"! 
                                                  यहाँ कमी इच्छाशक्ति की है, यदि सरकार चाहती तो अभी तक लोकपाल बिल पास हो चुका होता, जैसा की उत्तराखंड जैसे नवनिर्मित राज्य मे शसक्त लोकायुक्त पारित हो गया, "ध्यान देने वाली बात यह है की वहाँ लोकायुक्त केवल 3 मीटिंग के बाद ही पारित हो गया और ऐसा वहाँ के मुख्यमंत्री खंडूरी जी ने SPECIAL SESSION बुला कर करवाया, पर कौंग्रेस कहती है की ऐसा उन्होंने चुनावो से पहले वोट पाने के लिए किया, पर मै कहता हूँ की एक मंत्री अच्छा क़ानून बना कर वोट प्राप्त करता है तो इसमें गलत क्या है? अन्य मंत्री तो शराब के बदले वोट मांगते है"! सचाई तो यह है की सरकार चाहे तो 48 घंटो के अन्दर मजबूत लोकपाल क़ानून बना दे, पर शायद सरकार को डर है की कहीं आधी कौंग्रेस जेल न चली जाए! या सरकार ने इसको नाक का सवाल बना लिया है और सत्ता का गुरूर इतना सर चढ़ चुका है की अब जनता संसद से कम दिखने लगी है! पर याद रखना चाहिए की 5 साल बाद ( 2014 ) जनता ही तेय करेगी की कौन देश चलाएगा? तो आज से तो मै अपने देश को निर्वाचित तानाशाही पर आधारित देश कहूँगा जहाँ जनता के प्रतिनिधि जनता द्वारा चुन के तो आते है पर चुने जाने के बाद तानाशाही चलाते है!

Saturday, December 10, 2011

एफ.डी.आइ से डर क्यों?



आखिर सरकार ने 51% एफ.डी.आइ  लागू कर ही दिया! पर इस पर मच रहा बवाल कुछ वैसा ही है जैसा  की 1991 में  नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने से पहले देसी बाजार बर्बाद होने का  मुद्दा गरमाया था, आज जब देश की अर्थव्यवस्था चरमरा रही है और विकास की दर उठाने को लेकर हर कोई सरकार  से उम्मीद लगाये  बैठा है तो एफ.डी.आइ को लागु करने से पहले इतना हंगामा क्योंकिया जा रहा था! आखिर हम हर नयी शुरुवात से पहले इतना डर क्यों जाते है? कम्प्यूटर के भारत मे आने से पहले भी यही कहा जा रहा था की कप्यूटर से हर आदमी बर्बाद हो जायेगा, पर आज तस्वीर साफ़ है! जनता हूँ की एफ डी आई और कम्प्यूटर मे तुलना करना सही नहीं लगता पर मै बात सिर्फ नजरिये की कर रहा हूँ, जो की हर नई शुरुवात से डरी सी लगती है! खुद सोचिये 5 या 6 साल मॉल्स की संस्कृति को भारत मे पैर जमाये हो चुके है और अभी तक कोई किरियाने वाला बेरोजगार होता नहीं दिखा, तो यह कहना की इस से बेरोजगारी बढ़ेगी सही नहीं लगता! जैसे बर्गर  या पिज्जा  के आने से इडली  और डोसे  की मांग कम नहीं हुई वैसे ही मॉल्स के आने से किरियाने वालो की एहमियत कम नहीं होगी, बस होगा यह की लोगो को सस्ता और बढ़िया गुणवत्ता का सामन आसानी से मिल सकेगा और अर्थव्यवस्था का नियम है प्रतियोगिता उपभोक्ता के लिए लाभदायक होती है!  एक बात और की जब तब नकली घी या तेल के खुलासे सामने आते है तो वह मॉल्स में नही आम किरियाने की दुकानों मे होते है तो किसकी विश्वसनीयता ज्यादा है यह आप समझ सकते है! यह भी कहा जा रहा है की जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत पर कब्ज़ा कर लिया था वैसे ही यह कदम भी हम को गुलामी की ओर धकेलेगा, पर उस समय तो भारत पूरा एक भारत था ही नही, वह अलग अलग राजाओ का भारत था जहाँ अंग्रेजों ने राजाओं को लड़ा कर खुद को भारत का राजा बनाया, पर अब भारत मे लोकतंत्र है, राजा जनता से पूछ के काम नहीं करते थे पर आज जनता की चलती है अगर कुछ गलत होता दिखा भी (जो की नहीं होगा) तो हम उसको रोक सकेंगे हमारे पास मीडिया है, हर वह साधन है जो गलत को रोक सके तो मत डरिए! अंत मे बताना चाहूँगा की  जो सुविधाएँ एक किरियाने वाला देता है वह मॉल्स मे मिलना मुश्किल है! तो डरिये मत नयी चीजो को अपनाना सीखिए, और अपने देश में हर बात पर राजनीति खेली जाती है तो उस को भी समझना सीखिए! मेरे अनुसार एफ.डी.आई का स्वागत है!






Friday, December 9, 2011

सुन्हेरा भरष्टाचार

पिछले कुछ दिनों से भरष्टाचार के विरोध मे बहुत  सी बातें सुन और देख रहा हूँ , पर मेरे लिए समझना थोड़ा मुश्किल है की भरष्टाचार का इतना विरोध क्यों? आखिर  हिन्दुस्तान की पहचान बन चुका है भरष्टाचार, लोग कहते है की राष्ट्रमंडल खेलो मे घोटाले हुए, पर जरा सोचिए की घोटालो के लालच मे राष्ट्रमंडल खेल तो हुए! हम होते कौन है भरष्टाचार का विरोध करने वाले, रोजाना बस या ट्रेन मे बिना टिकेट के सफ़र करते है और इसको हम अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते है! क़ानून के साथ खिलवाड़ करने को अपनी समझदारी का सबूत मानते है, तो फिर इसका विरोध करने का ड्रामा क्यों? आइये स्वीकार करे की भरष्टाचार हमारे खून मे है!
                                                                                        जल्द ही सरकार को स्कूल व colleges मे  भरष्टाचार सम्बन्धी कोर्स शुरू करने चाहिए आखिर इस से ज्यादा  सुन्हेरा भविष्य और कहा है, कहाँ  आप २००० करोड़ की कमाई कर सकते है! इस मे मैनेजमेंट के गुण होने भी जरुरी है क्योंकि पुरे देश की आँखों पर पर्दा डाले रखना कोई आसन काम नही है! इस तरह के कोर्स मे कलमाड़ी या ए राजा जैसे लोगो की सेवाये भी ली जा सकती है, यह सिर्फ भरष्टाचार पढ़ाएँगे ही नही यह भी सिखायेंगे की पकड़े जाने पर जेल मे कैसे आराम की ज़िन्दगी जियें! सरकार भरष्टाचार की गुणवत्ता बनाई रखने के लिए नयी योजनाये भी शुरू करेगी जैसे "भारत भरष्टाचार विकास योजना" या "भरष्टाचार ग्रामीण विकास योजना"! ऐसे पर्यासो से नए और महान भ्रष्टाचारी भी अस्तित्व मे आएँगे जिनके लिए सरकारी पुरस्कार भी दिए जाएँगे जैसे भारत भरष्टाचार रतन ! इसके साथ साथ लोगो को संविधान के तहत भरष्टाचार का अधिकार भी मिलेगा जिसके लिए अन शन कलमाड़ी जैसे समाज सुघारक
करेंगे! 
                                                           इतना सब हो जाने के बाद आखिर मीडिया इस से पीछे क्यों रहेगी? नए प्रोग्राम्स चलाये जाएँगे जैसे currept master या कौन बनेगा भ्रष्टाचारी! आपका यह सोचना ठीक है की आखिर मै
भरष्टाचार की इतनी तारीफ़ क्यों कर रहा हूँ? क्योकि मै जनता हूँ की भरष्टाचार ना तो नारे लगाने से खत्म
होगा न ही लोकपाल से तो क्यों इसका विरोध करूँ! इसके लिए चाहिए इमानदारी जो मुझे फ़िलहाल कम ही दिखती है तो छोड़िये यह सब एक भरष्ट जीवन की और कदम बढ़ाते है!