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Monday, September 3, 2012

भारतीय सिनेमा के जन्म का पहला दशक 1930-40 (भाग-3)

सिनेमा के पहले दशक का अंत देवदास का जिक्र किये बिना नहीं किया जा सकता! इस दशक में शरत चन्द्र चट्टोपाध्याय के नायब उपन्यास पर आधारित पी सी बरुआ के निर्देशन में  देवदास हमारे सामने आई! यह न्यू थियेटर्स के बैनर तले सन 1936 में बनी! देवदास और पार्वती पार्वती के प्रेम पर आधारित यह फिल्म स्त्री की कशमकश को दिखाती है! परन्तु फिल्म का अंत परम्पराओं के पुराने पढ़ जाने और स्त्री की मुक्त आकान्शाओं की तरफ संकेत कर जाता है! कुंदनलाल सहगल वैसे तो विख्यात गायक के रूप में काफी प्रसिद्ध हैं पर देवदास जैसी चंद फिल्मों में  काम करने से उन्हें एक असरदार अभिनेता भी मन जाता है ! इन्होने ही देवदास फिल्म में  गाने भी गाये इनकी यह फिल्म आज भी मिसाल के रूप में याद की जाती है! और उस देवदास से आज के देव डी का सफ़र इसके महत्व को दर्शाने के लिए काफी है! देवदास पहले बंगाल में बनी थी! बरुआ निर्देशित उस बंगाली देवदास में बरुआ ही देवदास रहे थे! पर तब इसकी सफलता का शेत्र बांगला भाषी शेत्र तक ही सीमित था इसलिए इसे हिंदी में बनाने का ख्याल आया! हिंदी देवदास में  बरुआ निर्देशन तक ही सीमित रहे और देवदास का किरदार सहगल ने निभाया! इस तरह सिनेमा के पहले दशक ने बहुत खूब शुरूवात की और आगे की राह साफ़ हुयी!  

Sunday, September 2, 2012

भारतीय सिनेमा के जन्म का पहला दशक 1930-40 (भाग-2)

फिल्मों का शुरुवाती दौर धार्मिक फिल्मों का दौर था! दादा साहब फाल्के फिल्मों की शुरुवात कर चुके थे और आने वाले समय में फिल्मे नए नए कीर्तिमान रचने वाली थी! फिल्मों के पहले दशक में मील का पत्थर साबित हुयी पहली बोलती फिल्म जिसके बिना आज की फिल्म इंडस्ट्री की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी! 1931 में "आलम आरा" क्रांति ले आई और फिल्मे बोलने लगी! इसके निर्देशक थे इम्पीरियल फिल्म कंपनी के मालिक अर्देशिर इरानी! इनका जन्म पुणे में हुआ! पूरा नाम था खान बहादुर अर्देशिर ईरानी! सन 1929 में  इन्होने एक बोलती अमेरिकन फिल्म देखी जिसका नाम था "मेलोडी ऑफ़ लाइफ" जो उनके लिए प्रेरणा बनी! वह अपने दो दोस्तों के साथ अमेरिका गए, तीन महीने साउंड फिल्म की ट्रेनिंग ली! 1930 में
फिल्म आलम आरा की शूटिंग शुरू की! इस फिल्म मैं उस समय के स्टार पृथ्वी राज कपूर, मास्टर जयराम विथल,  जुबैदा तथा एम् डब्लू खान ने काम किया! "दे दे खुदा के नाम पर बन्दे" पहला भारतीय सिनेमा का  गीत रहा!
इस दशक के महान किरदारों में  हिमांशु रॉय का नाम भी उल्लेखनीय है मुख्यतः "अछूत कन्या" के लिए जाना जाता है! चलिए इस दशक के इस महान व्यक्ति  के विषय में बात करते हैं! हिमांशु रॉय भारतीय सिनेमा से तब जुडे जब शुरुवाती दौर था, संघर्ष चल रहा था पर ये ऐसे पहले व्यक्ति साबित हुए जिसने भारतीय सिनेमा की विदेशों तक पहचान बनायीं! इनका जन्म बंगाल में  हुआ, घर का थियेटर होने के कारण हमेशा से इस कला से जुड़े रहे1 पिता ने वकालत पढने के लिए इंग्लॅण्ड भेजा पर वहां अलग अलग रंगमंच से भी जुड़े रहे! लंदन मई निरंजन पौल के नाटक "द  गोदेस" में  मुख्य भूमिका निभाई!2936 में अछूत कन्या रिलीज़ हुयी, यह उन शुरुवाती फिल्मो में से एक थी जिसने समाज की कमियां समाज के सामने रखी! यह कहानी थी एक पंडित लड़के और एक नीची जाती की लड़की की प्रेम की! हिमांशु रॉय की "द लाइट ऑफ़ द एशिया",  जिसमे महात्मा बुद्ध की कहानी कही गयी, विदेशों में खूब चली, 9 महीने चलकर इसने नया कीर्तिमान स्थापित किया! इसके बाद इन्होने जर्मनी की फिल्म कंपनी के सहयोग से शिराज नाम की फिल्म बनायी! इसके बाद 1929 में इंग्लॅण्ड  व जर्मनी की कंपनी की मदद से "अ थ्री ऑफ़ डायस" बनायीं! फिल्म पूरी होते होते फिल्म की नायिका  देविका रानी तथा हिमांशु रॉय पति पत्नी क बंधन में  बांध चुके थे! इतनी सफल फिल्मों से जो पैसा कमाया उससे  1934 में बॉम्बे टाकीज कि स्थापना की! अछूत कन्या का निर्माण बॉम्बे टाकीजके बैनर तले ही किया गया! इसमे बॉम्बे टाकीजके लैब सहायक अशोक कुमार को भी भूमिका अदा करने का मौका मिला! 6 वर्ष जितने कम समय में  बॉम्बे टाकीज न काफी नाम कम लिया पर इस से पहले की हिमांशु इसे नयी उचाईयों तक ले जा पाते 19 मई 1940 को सिर्फ 45 वर्ष की उम्र में  उनका निधन हो गया! क्रमश

Saturday, September 1, 2012

भारतीय सिनेमा के जन्म का पहला दशक 1930-40 (भाग-1)

अधिकतर लोगों के मन में यह सवाल उठता है की आज इतना फल फूल रहे भारतीय सिनेमा की शुरुवात कैसे हुयी या उस समय में आई फिल्मो ने भी क्या समाज पर कोई प्रभाव डाला? आज इस लेख के माध्यम से मैं हिंदी सिनेमा के पहले दशक के बारे में बात करूंगा! हिंदी सिनेमा के इस दशक पर मैं मुख्य निर्देशकों पर सिलसिलेवार बात करता हुआ आगे बढूँगा! जिस तरह हमारा देश अलग अलग दौर से गुजरा, जो भी परिवर्तन हमारे समाज ने देखे उसे अपने तरीके से सिनेमा ने व्यक्त किया! इसके बीजारोपण की तिथि थी 7 जुलाई 1826, लुमिएर ब्रदर्स नमक दो फ्रांसिसीयों की फ़िल्म का प्रीमियर वाटसन ठेयेटर में  हुआ! इसमें 12 लघु फिल्मे दिखाई गयी जिनमे "अरायिवल ऑफ़ द ट्रेन", "द  सी बाथ" मुख्य थी! इसे करीब 200 लोगो ने देखा! इन सब से प्रभावित हो मणि सेठना नाम के भारतीय ने भारत का पहला सिनेमा घर खोला! जिस पर पहली फिल्म "द लाइफ ऑफ़ द क्रिस्ट" दिखाई गयी! यह फिल्म धुंडी राज गोविन्द फाल्के उर्फ़ दादा साहेब फाल्के ने भी देखी और इसी से प्रेरित हो कर  भारतीय सिनेमा की नीव रखी! यह फिल्म जीजस क्रीस्ट की जिंदगी पर आधारित थी और इसे देख वह समझ गए की भारतीय वेदों और पुराणों में ऐसी कई कथाएं है जिन्हें फिल्मों का रूप दिया जा सकता है! इनका जन्म 30 अप्रैल 1870 में  महाराष्ट्र में नासिक के करीब त्रिय्म्ब्केश्वर में  हुआ! फिल्मे बनाने का सपना देखना उसे करने से कहीं  ज्यादा आसान था क्योंकि तब तक किसी भारतीय ने फिल्म निर्माण जैसे पेचीदे कार्य को हाथ नहीं लगाया था इसके अलावा फिल्म तकनीक से अवगत होना भी बेहद जरुरी था! इन सब को प्राप्त करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए और वापसी में एक कैमरा और प्रिंटिंग मशीन लेकर लौटे! अगली दुविधा यह थी की उस समय फिल्मों में पैसा लगाने को कोई तैयार नही था क्योंकि तब तक किसी को विश्वास नहीं था की  भारतीय भी फिल्म बना सकते हैं! इसे सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक मटर के दाने को पौधे में विकसित होते हुए शूट किया इसका नाम था द  ग्रोथ ऑफ़ अ पी प्लांट! इसके बाद इन्हें आर्थिक सहायता देने के लिए कई हाथ आगे आये! पहली फिल्म राजा हरीशचंद्र के रूप में सामने आई! हरीशचंद् की भूमिका दाबके तथा तारावती की भूमिका सालुंके ने की क्योंकि  उस समय महिलाओं का फिल्म में काम करना आसान नहीं था! 17 मई 1913 को यह कोरोनेशन  थियेटर में  प्रदर्शित हुयी, और यह 8 सप्ताह चली! इसके बाद नासिक में इन्होने "भस्मासुर मोहिनी" बनायीं, यह फिल्म विफल रही! अगली फिल्म "सत्येवान सावित्री" बनायीं! इसके बाद यह अपनी तीनो फिल्मों को लेकर इंग्लॅण्ड चले गए! स्वदेश लौट कर "लंका दहेन" बनायीं ! अभी तक की सभी फिल्मे इनके खुद के बैनर टेल बनी थी पर इसके बाद खुच धनवान लोगो  द्वारा सांझे लाभ हानि का प्रस्ताव आने पर हिन्दुस्तान कंपनी का जन्म हुआ! इस कंपनी के बैनर तले "कृषण जन्म" बनायीं और इसके बाद कालिया मर्दन बनायीं! इनकी पहली और आखरी सवाक फिल्म "गंगावात्रण" थी! 19 फ़रवरी 1944 में  74 वर्ष कि उम्र में  नासिक के अपने घर में इन्होने आखरी सांस ली! आज भी दादा साहेब फाल्के अवार्ड फ़िल्मी शेत्र में दिए जाने वाला सबसे बड़ा अवार्ड है! क्रमश