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Thursday, August 30, 2012

जन जागरण का नया नाम था सत्येमेव जयते!

मनुष्य जाति के इतिहास में जन जागरण का अपना ही महत्व रहा है इतिहास गवाह रहा है की जब जब आडम्बर या कुरीतिय अपनी सीमायें पार कर गयी तब तब जन जागरण की लहर चली जिसने लोगों को जगाया या कुरीतियों के कु प्रभाव से उन्हें अवगत करवाया! इस पूरी प्रक्रिय में कुछ कुरीतिय मिट गयीं पर कुछ लुखे छिपे ढंग से मौजूद रहीऔर आज इक्कीसवी शताब्दी में भी इनमे से कई अपने अस्तित्व के साथ बखूबी मौजूद है! राजा राम  मोहन राय, दयानंद सरस्वती या महात्मा गाँधी यह और इनके जैसे कई पने अपने काल की कुरीतियों के खिलाफ एक मुहीम के रूप में जाने जाते है! इन सभी ने कुरीतियों के खिलाफ लड़ने का जो तरीका अपनाया वह था कुरीतियों को लोगों के सामने उठाना, उन्हें बहस का मुद्दा बनाना! इस कड़ी में  2012 के भारत में यह भूमिका एक टेलीविजन कार्यक्रम पूरा करता दिखाई दिया "सत्यमेव जयते"!
                                       यह कार्यक्रम टेलीविजन पर ऐसी भूमिका में  और ऐसे समय पर आया जब टेलीविजन से टीआरपी के अलावा किसी और चीज पर ध्यान देने की उममीद  करना भी बेमनी था! राजा राम मोहन राय ने अपनी विचारधारा और सत्य लोगों तक कुछ समाचार पत्रों द्वारा पहुँचाया, वही दयानन्द सरस्वती जी ने अपनी सोच विदेशो में भाषणों द्वारा जनता तक पहुंचाई अर्थात हर काल के समाज सुधारक ने अपने अपने समय के संचार साधनों का प्रयोग किया ऐसे में यदि इक्कीसवी शताब्दी केवल टीआरपी की होड़ में निकल जाती तो यह काफी दुखद होता! पहले प्रयास के रूप में सत्येमेव जयते हमारे सामने आया जिसमे बेहद संवेदनशील तरीके से मुद्दों को उठाया गया, और मुद्दों के प्रति संजीदगी को इस धर पर आँका जा सकता है की कार्यक्रम में  अलग अलग मुद्दे उठते ही उन पर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली! कुछ आलोचकों ने इसकी  टीआरपी  को  लेकर इसकी सफलता पर ऊँगली उठाने की कोशिश की पर ऐसे सामाजिक मुद्दों पर आधारित किसी  भी कार्यक्रम के सफलता का पैमाना उसका जनता पर प्रभाव होना चाहिए इस हिसाब से इसने सफलता की अलग ही गाथा लिखी! अपने 13 एपिसोड के बाद यह कार्यक्रम रूपी मुहीम समाप्त हुयी और 13 एपिसोड में  हर समस्या पर बात कर पाना काफी मुश्किल है इसलिए ऐसे कार्यक्रम रूपी और कई  मुहिमो की जरुरत  है!    

Wednesday, August 29, 2012

अब लोकतंत्र में बदलाव आवश्यक है!

लोकतंत्र अर्थात जनता का शासन, पर पिछले कुछ समय से हिंदुस्तान में इसके मायने बदल गए है! सरकार  का लिखित आश्वासन के बाद मुकर जाना, शान्तिपूर्ण तरीके से धरना प्रदर्शन करते लोगो पर लाठी चार्ज, संचार का सबसे सरल साधन बन चुके एस.एम.एस पर रोक, जब तब सोशल मीडिया पर सरकार के प्रति रोष जताने वालों पर कड़ी कार्यवाही, यह सब उदाहरण दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नहीं लगते! पर दुर्भाग्यपूर्ण रूप से यह सब हमने यह सब पिछले महीने होते देखा!
                                                     विपक्ष के मुख्य नेता अडवाणी जी द्वारा यह भविष्यवाणी की 2014 में देश का प्रधानमंत्री गैर कांग्रेसी तथा गैर भाजपायी होगा अपने आप में उपरोक्त सभी घटनाओं का एक निचोड़ पेश करती है जो संभवत: घटित हो भी सकता है! इस सम्भावना को टीम अन्ना का राजनीती में उतरना और समाजवादी पार्टी का उत्तर प्रदेश में शानदार प्रदर्शन काफी बल देता है! यह बात जो एक विपक्ष का नेता आसानी से खुल कर सबके सामने बोल गया वह अभी तक सत्ता पक्ष समझने में नाकामयाब रही और उम्मीद है की 2014 में अपनी  नाकामयाबी के बाद यह सब बातें कांग्रेस विभिन्न आयग बना कर पता करेगी! और जो विपक्ष जीत से फुले नहीं समां रहा उसको यह समझने में परेशानी हो रही है की यह जीत उसे विकल्प के आभाव में  मिली है न की अपने किसी शानदार प्रदर्शन के कारण! किसी भी सत्ता पक्ष के लिए यह समझना जरुरी है की उसके हर छोटे बड़े  कृत्य से कोई न कोई  सन्देश जनता तक जरुर पहुँचता है जिसके आधार पर मतदान का फैसला मतदाता करता है! आज भारतीय मतदाता के समक्ष स्तिथि लोकतान्त्रिक होते हुए भी लोकतान्त्रिक नहीं है! मतदाता के सामने अपने मत योग्य उमीदवार उपलब्ध नहीं है, जनता को हर बार ज्यादा बयिमानो में  से कम बयिमानो को चुनने के लिए मजबूर होना पड़ता है! यही कारण है की हर बार के चुनाव के मतदान का प्रतिशत 50 या 60 प्रतिशत से ज्यादा नहीं पहुँच पाता! कितना हास्येपद लगता है की दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश कहलाने वाले भारत में आधी आबादी मतदान ही नहीं करती या कहें की आधी आबादी का विश्वास ही चुनाव प्रणाली से उठ चुका है और यह मुख्य पार्टियों द्वारा अपराधिक छवी वाले लोगो को समर्थन देने का नतीजा है! कलमाड़ी, ए राजा  या कोयला घोटाला यह बताने के लिए काफी है की हर कानून का तोड़ मौजूद है और ऐसा प्रतीत भी होने लगा है की लाल बत्ती वाले अपने कानून खुद बनाते है! लोग सड़कों पर उतर रहे है धरना प्रदर्शन कर रहे है! यह बताने का लिए काफी है की मौजोदा व्यवस्था से लोग नाखुश है! यह आज बहुत जरुरी हो गया है की भारतीय लोकतंत्र में कुछ सुधार  किये जायें ताकि लोकतंत्र सिर्फ नाम का लोकतंत्र न रह जाये, ताकि उन पर नकेल कसी जा सके जो कानून को तोड़ मरोड़  कर अपने सुविधा अनुसार इसका प्रयोग करते है, ताकि एक सरकारी नौकर नौकरी करे आराम की नौकरी नहीं , ताकि भरष्टाचार के वर्ल्ड रिकॉर्ड में भारत का नाम आना बंद हो और आम आदमी अपने मत के लिए  एक सही उमीदवार पा सके और लोकतंत्र सच्चा लोकतंत्र बन सके!      

Sunday, August 5, 2012

निराशावादी आशावाद से दूर रहे! (अन्ना आंदोलन)

हिन्दुस्तान में जब कोई किसी मुद्दे के प्रति खुद को बेबस महसूस करता है तो परिस्थितियों से लड़ने की जगह हम खुद को कोई ना कोई तसल्ली दे कर मुद्दे से बिल्कुल अलग कर लेते है! ऐसा ही कुछ मुझे पिछले दिनो टीम अन्ना के आंदोलन में लोगो के रवैये तथा मीडिया चैनलों के साथ होता दिखाई दिया! टीम अन्ना के सदस्यों ने जब पिछले दिनो अनशन की शुरूवात की तो मीडिया चैनलों में इस आंदोलन को फेल करार देने की होड़ सी लग गयी! जब इस मुद्दे पर लोगो से मैने बातचीत की तो पाया की लोगो का नज़रीया भी रातों रात मीडिया चैनलों की ख़ास पेशकशों के अनुरूप बदल गया है! लोग अब लड़ने से कतरा रहे थे और एक बात लगभग हर किसी ने दोहराई की लोकपाल क़ानून से तो भ्रष्टाचार ख़तम नही होगा, इसके लिए तो लोगो को ही ईमानदार बनना पड़ेगा! यह बात एक बार को आप को धोखे में डाल सकती है और इस तरह की तसल्ली दे कर लोग आगे की लड़ाई लड़ने से माना भी करने लगे थे पर ऐसी तस्सल्ली एक तरह के निराशावादी आशावाद के समान है जिसमे यह आशा तो है की लोग इमानदर बनेगे पर जब इसका विश्लेषण वास्तविक धरातल पर करेंगे तो नतीजे निराशावादी पाएँगे! इस कथन को यदि हम गहराई से देखे तो पाएँगे की यह सारा इल्ज़ाम लोगो पर डाल देता है की लग भ्रष्ट है और जब तक वह नही सुधरेंगे लोकपाल का भी कोई लाभ नही होगा! एक उदाहरण के साथ इस कथन को समझने में और आसानी होगी, यह कथन कहता है की कोई अगर राशन कार्ड बनवाने जाता है तो वह सरकारी बाबू को कहेगा की में राशन कार्ड तभी लूँगा जब आप मुझसे घूस लेंगे!!! क्या यह वास्तविकता लगती है?नही!!!! कोई भी खुशी से घूस नही देता और ख़ास तोर पर भारतीय तो एक अधिक रुपया ना खर्चे! आम आदमी को मजबूर किया जाता है भ्रष्ट बनने पर क्यूंकी ईमानदारी से काम करवाने के सारे रास्ते उसके लिए बंद कर दिए जाते है! भ्रष्ट बनने पर मजबूर करता है सरकारी अफ़सर जो यह सोच कर अपनी नौकरी करता है की ज़मीन और आसमान एक हो सकते है पर मेरी नौकरी पर कोई आँच नही आ सकती! इन सब तर्को के बाद भी काई लोगो का कहना था की आम आदमी इनके आगे झुक क्यूँ जाता है? यह भी एक उलझा देने वाली तसल्ली है जिसकी हक़ीकत एक और उदाहरण से सॉफ हो सकती है! किसी परिवार में एक बच्चा बीमार हो जाता है पर सरकारी डॉक्टर इलाज से पहले घूस की माँग करता है तो वह व्यक्ति उस समये ईमानदारी की खोखली बाते करे या अपने बच्चे का इलाज करवाए! यह एक नही ऐसे ही हज़ारो उदाहरण उपलब्ध है यह बताने के लिए की वास्तव में एक आम आदमी इमानदर ही होता है उसे भ्रष्ट सरकारी अफ़सर बनाते है या मजबूर करते है1 और ऐसा इसलिए है की लोकपाल जैसे मजबूत क़ानूनो का आभाव इस देश में आज़ादी से है! कुछ दिन बाद अन्ना आंदोलन में भीड़ बाद गयी और मीडिया कुछ शांत हुई पर जब सरकार का रुख़ नकारात्मक रहा तो अन्ना को राजनीति में आने की घोषणा करनी पड़ी पर मीडिया अचानक "16 महीनो में आंदोलन की मौत" जैसे कार्यक्रम दिखाने लगा! क्या अन्ना का राजनीति में आना ग़लत है ? क्या मीडिया का मानना है की राजनीति मात्र अपराधिक छवि वालो के लिए है? इस पूरे आंदोलन में मीडिया की छवि विवादस्पद रही, जहाँ यह चैनल अपने पोल द्वारा यह घोषणा कर रहे थे की 96% लोग अन्ना के राजनीति में आने से सहमत है, वही आंदोलन की मौतजैसी ख़बरे दिखा रहे थे! क्या यह सरकारी दबाव में किया गया? साधारण तोर पर मीडिया से यह उमीद की जाती है की वह जन हित में बात करे पर इस दौरान मीडिया खुद संदःपूर्ण स्तिथि में था! समये है की लोग अपनी ज़िम्मएयदारी को समझे और मीडिया के अनुसार अपनी सोच परिवर्तित ना करे!