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Sunday, December 16, 2012

अरे रुक जा रे बन्दे

इन्सान भी कमाल का प्राणी है। खोजता खुशियाँ है और याद दंगो की  तिथियाँ  रख्ता है। पिछले दिनों बाबरी मज़्जिद विध्वंस को दस साल पूरा होने पर सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर विध्वंस की तस्वीरों  के  साथ  इस तरह के दंगो के  विरोध में विचारों की भरमार देखी। इसी तरह गोधरा काण्ड  को बीस साल पूरा
हो जाने पर दिल्ली के ही एक विश्वविद्यालय  में  एक समारोह के आयोजन में बदले की भावना से भरे कुछ भाषण भी सुने। साम्प्रदायिकता की तुछ  राजनीती से प्रेरित ऐसे दंगो को क्या इतना महत्व देना सही है की इनकी याद  में समारोह आयोजित किये जायें। कहने का अर्थ यह बिलकुल नहीं है की इन्हें भुला दिया जाये
या दंगों में  मारे  गए मासूम लोगों  को न्याय न  मिले। इन्सान को अपनी गलतियों और अतीत से सबक सीख्रते
रहना चाहिए पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसे दंगों को जब दस या बीस साल बाद  अलग अलग तरह के
समारोहों और भाषणों के माध्यम से याद किया जाता है तो क्या वाकई हम कोई सबक सीख रहे होते है या फिर
दस या बीस साल  बाद  उन्ही तुछ सांप्रदायिक विचारों को नया मंच देते है जिन्होंने इंसानियत की हत्या की होती है। एक लम्बे समय के बाद दोबारा उन्ही घटनाओ को याद कर  हम नयी पीड़ी में उसी बदले की भावना को संप्रेक्षित कर देते है और  इस तरह सौ साल बाद भी इन दंगो के धाव ताजे ही रहते है।
                                                                      हमे रुक के सोचना होगा कि आखिर   हम किस ओर जा रहे है? सोचना होगा की हम कैसा भारत चाहते है? दंगो की आग में  जलते रहने वाला भारत या गलतियों से सीख उन्हें
दोहराने से बचने वाला भारत। क्या एड्स दिवस पर एड्स फैलाया जाता है? नहीं।। फैलाया जाते है एड्स  से
बचने के उपाए और सावधानियाँ। इसी तरह दंगो को याद करने की जगह उनसे उलट भाईचारे के सन्देश उस दिन क्यों नहीं फैलाये जाते? इसे कहा जायेगा सही सबक सीखना। ब्लैक फ्राइडे नाम की फिल्म के एक गीत से कुछ पंक्तियाँ याद आती है की
                                                                    ये अंधी चोट तेरी
                                                                   कभी की सूख जाती
                                                                   मगर अब पक  चली है
      

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